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Thursday, April 14, 2016

सोशल मीडिया का नया दौर- 1





अंधभक्तों की अंधभक्ति कमजोर पड़ती नज़र आती है.  भक्तों का झुण्ड हम गैर -भक्तों को दबोचने लगभग नहीं टपकता.  वे बेचारे करे भी तो क्या करें.  तमाम गैर -भक्तों ने सोशल मीडिया पर लामबंदी कर ली है. उनके एक- से -बढ़कर -एक पोस्ट , भारी पड रहे हैं कूड़ा -कचरा फैलाने वाले भक्तों पर.

पहले शाम के वक़्त ही गैर -भक्त , सोशल मीडिया पर टहलने आते थे. कुछ डिनर से पहले या बाद में हलकी सैर करने के अंदाज में प्रगट होते थे और कुछ ही देर में भक्तों की भारी भीड़ से तंग आकर चले जाते थे. अब उनकी अर्ली मॉर्निंग वाक से लेकर जॉगिंग तक शुरू हो चुकी है.बहुतेरे साथी सुबह से देर रात तक सोशल मीडिया पर नज़र रखे होते है ताकि किसी भी और गैर -भक्त साथी को भक्तों का झुण्ड ना घेरे.

छात्र , युवक , लेखक , पत्रकार , कवि , नाट्यकार , फिल्मकार और प्राध्यापक ही नहीं डॉक्टर , इंजीनियर आदि प्रोफेशनल भी बड़ी संख्या में सोशल मीडिया के वैचारिक रण क्षेत्र में उतर आये है लोकतंत्र की हिफाज़त के लिए. सबसे गौर तलब बात यह है गैर -भक्तों की लगातार बढ़ती पंक्ति में महिलाओं की बड़ी भागीदारी है. लद गए वो दिन जब भक्तों का झुण्ड , सोशल मीडिया पर किसी भी गैर- भक्त महिला साथी को बिन किसी प्रतिरोध के घेर लेते थे. ट्विटर अभी भी क्लासेज के लिए है और फेसबुक मासेज के लिए.

भाड़े के टट्टू कहिये कि मर्सीनरीज , इन भक्तों के हौसले पस्त हो गए लगते हैं. शायद उनकी पगार भी बंद या कम कर दी गई है. कन्हैया ने यूं ही नहीं कहा कि उनकी पगार बढ़वाने के आंदोलन में भी वह शामिल होगा.

हाँ ,  आरएसएस के खांटी स्वयंसेवक अभी भी मंडराते है पर उनके पास अपना लगभग कुछ भी नहीं पढ़ने- लिखने , पढ़ाने और सुनाने के लिए. वो ज़ीटीवी का मुंह जोहते रहते है या फिर देश में बढ़ रहे जन आंदोलन को कुंद करने की फिराक में उन विषयों को उठाने की फिराक में रहते है जो आम जन के तात्कालिक मुद्दे नहीं है. वो आपस में ही एक दुसरे की पीठ थपथपा खुश -खुश हो लेते हैं.

मुंबई में मध्य  रेलवे का एक उपनगरीय स्टेशन है , कांजुर मार्ग।  इसे काल सेंटर कैपिटल ऑफ़ इंडिया भी कहते हैं। वहां से लेकर आयीआयीटी मुंबई और भांडुप तक के इलाके में ढेरों कॉल सेंटर है।  इनमें काम करने वाले करीब पांच लाख युवाओं में से अनेक ने कहा , " अंकल , अब उतना मज़ा नहीं आता है भक्ति में ".

दूसरे  ने कहा " पहले तो हमें सिरिफ लाईक करने के लिए भी बहुत मिल जाता था , कट -पेस्ट करने का अलग से।  अब वो बात नहीं रही" .

एक मराठी युवती ने कहा , " कन्हैया के सामने आने के बाद से भक्ति का काम धंधा बहुत खराब चल रहा है. हम सबको अच्छा लगता है जब हमारे बीच का कोई भी माणूस लोकल ट्रेन में मोबाईल , टैबलेट , लैपटॉप पर कन्हैया की स्पीच सुनते -सुनाते गुनगुनाने लगता है - ' कन्हैया , आला रे , आला ".

 दो अल्पवय  " पूर्व भक्त " मुझे उसी कांजुर मार्ग रेलवे स्टेशन पर कुछ सुबकते -रोते से नज़र आये।  जब पूछा क्या हुआ तो एक ने कहा , '" नौकरी चली गयी ". पूछा , " क्या नौकरी थी?"  दूसरे ने कहा , " फेसबुक की नौकरी थी ". मैंने कहा , "  तब तो बहुत अच्छी नौकरी थी , पगार भी अच्छी रही होगी.  उसके एक्सपेरिएंस पर और कंही नौकरी तो मिल ही जायेगी , ट्राई करो. रोते क्यों हो ? "

दोनों मुझे टुकुर- टुकुर देखने लगे. मैंने पूछा , " चाय पीओगे ? " .दोनों हाँ बोल मेरे संग स्टेशन से बाहर कटिंग चाय वाले तक आये। पोहा भी खाया और फिर चाय पी. खाते -पीते बहुत कुछ बताया दोनों ने। 

उन्होंने जो कुछ बताया मैं अचंभित रैह गया. नौकरी फेसबुक की नहीं , फेसबुक पर थी , बारह घंटे.   हर हफ्ते का पगार था एक हज़ार रूपये. काम वही , भक्तों के पोस्ट अलग अलग फेक  आईडेंटिटी से " लाइक " करना , उनको ईमेल से मिले ' कच्चे माल ' को यहां वहाँ चिपकाना , गैर भक्तों  के पोस्ट पर जितनी गालियां सिखायीं गयी वो दाग देना.

नौकरी से इसलिए निकाल दिए गए कि वे ड्यूटी पर कन्हैया का स्पीच का आनंद लेते पकडे गए.

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