संगीत की संगत
जन्म से मृत्यु और श्रम से फुरसत तक , कहाँ नहीं संगीत
संसार की रचना जब भी हुई होगी तभी से
संगीत भी है. किसी भी मां को अपनी असह्य प्रसव-पीड़ा के बाद पैदा शिशु का
रुन्दन-क्रंदन,संगीत सदृश लगना
स्वाभाविक है. किसी भारी चीज को रस्से से बाँध कर उठाते श्रमिकों के बीच, ‘ जोर लगा के होइसा , हौले -हौले होइसा , प्रेम से बोलो होइसा , जोर से बोलो ‘ , आदि-आदि के सामूहिक स्वर, संगीतमय
धुन ही तो है!
ईश्वर की आराधना में वैदिक ऋचाओं के
मंत्रोचारण , भजन -कीर्तन गायन ,
शंख , घंटा -घड़ियाल , ढोल
, मजीरा , मृदंग आदि का वादन ,पाँचों वक़्त की नमाज अता करने की ताकीद करने के लिए मस्जिद से दी जाने
वाली अलाप -जैसी अजान ,खुदा से महबूब की तरह मोहब्बत की अभिव्यक्ति में हथेलियों की गुंजायमान
थाप के साथ गाई जाने वाली कवालियाँ , गुरुग्रन्थ साहिब की
शबद-वाणी , बौद्ध जातक कथाओं का सुमधुर पाठ , गिरजाघरों में प्रभू ईसा मसीह की सामूहिक प्रार्थना के समय बजाई सुरीली
घंटियाँ , संतों के दोहों का सस्वर उच्चारण, सूफी गीत -संगीत , आल्हा -उदल , बिरहा , गृहिणी की मंद -मंद हँसी ,
पुरुषों के ठहाके , बच्चों की किलकारी ,कोयल की कूक ,चिड़ियों की चहचहाहट , मुर्गे की बांग , गाय का रम्भाना , बकरी की मिमियाहट , घोड़े की द्रुत पदचाप , हिरणी की कुलाँचों की सनसनाहट , मोर -मोरनी का पारस्परिक ध्वनिगत संवाद , जंगल के राजा की गर्जनाएं , रेगिस्तान में रेतीली
बयार की अनुभूति , हिमालय पर्वत से टकराकर लौटती शीतल
पुरबिया हवा , पश्चिम से उठती गर्म हवा के झोंके ,पर्वतों के शिखर से नीचे बहती नदियों का अविरल प्रवाह , अरावली से लेकर सह्याद्री ,विंध्य , मलाबार आदि की पहाड़ियों के झरनों का
गुरुत्वाकर्षणीय उतार , समुद्र की उत्तंग लहरों का ध्वनि गत
आरोह -अवरोह , कहाँ नहीं है संगीत ?
यह धारणा सही नहीं कि संगीत ,राजा -महाराजा और धनाढ्यों के संरक्षण से ही फला -फूला
है। यह अलग बात है कि उनमें से भी बहुतेरों
को संगीत भाता रहा और इसलिए उन्होंने अपने राज दरबार और महफ़िलों में
संगीतज्ञों की कदर की ,उनके गुजर -बसर के लिए रोजगार ,धन , आदि का प्रबंध किया , संगीत
सीखने के केंद्रों को समुचित रूप से प्रोत्साहित किया और नवसीखिए को संगीत की
निपुणता प्राप्त करने के लिए वजीफे दिए.
यह सही है कि भारत में श्रुति की
परम्परा रही और इतिहास आधुनिक युग तक मौखिक रूप से ही दर्ज होता आया। संगीत की
दोनों , हिन्दुस्तानी संगीत
और कर्नाटक संगीत की शिक्षा गुरु -शिष्य परम्परा और ग्वालियर , कैराना , आदि घरानों के माध्यम से ही प्रसारित
हुई।यह भी सही है कि शतरंज की चालों से लेकर संगीत तक के लिखित वैज्ञानिक नोटेशन
को पाश्चात्य जगत से सीखना पड़ा।
लेकिन जब हिन्दुस्तानी , संगीत के नोटेशन सीख गए तो उनकी रची धुनों के नोटेशन
के आधार पर ऐसी धुनें उनके गुजर जाने के बाद भी संगीत -बद्ध किए जाने लगा. मिसाल
के तौर पर , भारत के प्रेमी और पाकिस्तान की प्रेमिका की
कहानी पर दिवंगत फिल्मकार यश चोपड़ा द्वारा बनाई गई फिल्म वीर-जारा के संगीत का जिक्र सबसे मुनासिब होगा.यह निर्विवादित
तथ्य है कि परिपूर्णता के कायल मदन मोहन ने इन धुनों को त्याग दिया था और उनके
गुजर जाने के बाद मिले इन नोटेशन के कॉपराईट खरीद कर यश चोपड़ा ने वीर -जारा फिल्म
में इस्तेमाल किया। वीर-जारा में प्रयुक्त इन त्याज्य धुनों की भी अपार लोकप्रियता
से सहज अनुमान लग सकता है कि उनकी अन्य फिल्मों में प्रयुक्त धुनों की स्तरीयता
कितनी अधिक है। किन्ही संगीतज्ञ ने यूं ही नहीं कहा है कि उन " पंजाबी फौजी " ने फिल्म
-संगीत को जो दिया वो किसी ने नहीं दिया।
संगीत पर मीडिया में लेखन में
उत्कृष्टता के लिए इंटरनेशनल फाउंडेशन ऑफ़ फाइन आर्ट्स और म्यूजिक फोरम (मुंबई )
के 2011 के पुरस्कार से नवाजे गए वरिष्ठ
पत्रकार , कुलदीप कुमार के
अनुसार कर्नाटक संगीत में कोई भी राग किसी भी प्रहर गाया-बजाया जा सकता है. लेकिन
हिंदुस्तानी संगीत में हर राग के गायन -वादन के प्रहर निर्धारित हैं।पूरे दिन को
तीन-तीन घंटों के कुल आठ प्रहर में बांट कर यह निर्धारित है कि किस राग का किस
प्रहर में गायन -वादन श्रेयस्कर है।
पूर्वाह्न सात से दस बजे तक के लिए निर्धारित रागों में कोमल (शुद्ध मध्यम ) का
इस्तेमाल होता है लेकिन अपराह्न सात से दस
बजे तक के निर्धारित रागों में तीव्र
मध्यम का प्रयोग श्रेयस्कर लगता है।
भारतीय संगीत की विराट परम्परा अनादि काल से प्रवाहित
होती रही और मध्यकाल में मुसलमानों के भारत आगमन के बाद , दो धाराओं में विभक्त हो गई। दक्षिण की धारा ने अपने
मूल स्वरूप को लगभग बचाए रखा पर उत्तर की
धारा में मुसलमानों के साथ आया अरबी, ईरानी और मध्य एशिया का
संगीत , घुलता-मिलता गया जिसके फलस्वरूप ध्रुपद की जगह ख़याल, ठुमरी,
टप्पा, तराना आदि स्वरूपों में प्रादुर्भाव
हुआ , लेकिन , हिन्दुस्तानी और कर्नाटक
संगीत की भी धाराओं में ही पारस्परिक सांगीतिक परंपराओं के समावेश का सिलसिला जारी है। मौजूदा परम्परा , विष्णु नारायण भातखंडे और विष्णु
दिगंबर पलुस्कर से बहुत प्रभावित है।
भातखंडे ने स्वयं कुछ पुस्तकें " चतुर पंडित " नाम से संस्कृत में
लिखीं। उन्होंने रागों के स्वरूप-निर्धारण और सैद्धांतिक आधार पर वर्गीकरण
करने का कार्य किया और पलुस्कर ने संगीत
की शिक्षण पद्धति विकसित करने का कार्य किया। भारतीय संगीत का अब विश्वविद्यालयों
में विधिवत शिक्षण हो रहा है।
भजन गायकी की भी स्तरीयता है। जाट रेजिमेंट के
सेवानिवृत्त कर्नल और खुद शौकिया पियानो -वादक हरेंद्र झा का कहना है कि " रामधुन " जैसे
अति लोकप्रिय भजन को भारतीय पियानो वादक , ब्रायन सेलास ने पियानो पर संगीतबद्ध कर उसे असाधारण स्तरीयता प्रदान की
है.
मृत्यु उपरान्त शवयात्रा में "
राम नाम सत्य है सबकी यही गत है " का शवयात्रा में शामिल लोगों का सामूहिक
उच्चारण भी संगीत ही है.
* प्रकाशन : नेशनल दुनिया (दिल्ली )
वसंत 2018
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