हाशिया का चिंतन :
किसानों की ह्त्या-दर-ह्त्या को खुदकुशी कहते हैं
एक , दो , सौ , दो सौ , हज़ार ,लाख नहीं , शायद करोड़ , दस करोड़ भी. पर ये महज़ आंकड़े हैं, संवेदनाविहीन - क्या पक्ष , क्या विपक्ष और मीडिया के लिए भी- जो लोगबाग़ को बताते कम , छुपाते ज्यादा हैं , भारत में किसानों की आत्महत्याओं की सतही ख़बरों की तह तक पहुच तार्किक वस्तुनिष्ठ निष्कर्ष निकालने के लिए उत्प्रेरित करने से.
देश में 1990 के दशक से लागू नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के बाद से किसानों की आत्महत्या के मामलों की ज्यामितिक अनुपात में लगातार बढ़ती परिघटनाओं को लेकर राज्यसत्ता की प्रथम पंक्ति के पहरुए के रूप में पुलिस को कोई ख़ास विवेचना नहीं करनी पड़ती." अपराध " की ऐसी सभी परिघटना की फाइल खुलते ही जल्द निपटा दी जाती है. आम तौर पर वर्षों के रियाज़ से विकसित और दुरूह समझ की सीमा तक मंजे एक मानक वाक्य में - " फलाने , ढीकाने ( शाब्दिक भाव ऐसे ही होते हैं अंग्रेजी ही नहीं सभी क्षैत्र की हर भारतीय भाषा में ) ने फलना तारीख को फलना वक़्त फलना जगह फलना खा / पी / डूब/ कट / कूद / लटक कर आत्महत्या कर ली.
पुलिस इन परिघटनाओं के पीछे के आर्थिक कारणों की संभावनाओं को टटोलने की कोई जरुरत ही नहीं समझती . पुलिस ,अपराध के कारणों के युग पुराने शास्त्रीय आयाम - "जड़ , जोरू , जमीन" - के कभी -कभार मध्यवर्ती बिन्दु को लपेट कर और अक्सर अन्य बिन्दुओं के गहरे आर्थिक यथार्थ को " वैयक्तिक विकार " के पदबंध से नत्थी कर पूरी तरह से मुहरबंद निष्कर्ष के साथ उस परिघटना की फाईल निपटा देती है.
राजयसत्ता की अंतिम पंक्ति के पहरुए के रूप में मीडियाकर्मी उन परिघटनाओं की सतह से कुछ नीचे जाने का स्वांग रचते हैं , तरह -तरह की अर्द्ध - विशेषग्यीय व्याख्या भी कर लेते हैं पर उनके गलती से भी निकाले किसी भी तरह के असहज निष्कर्ष राज्यसत्ता के लिए बाध्यकारी नहीं होते.
किसान , सुनंदा पुष्कर नहीं होते - जो ज्यादा हाय -तौबा मचे हुक्मरानो और उनके खिदमतगारों में उनकी कथित आत्महत्या या फिर ' व्यवस्था ' - उत्प्रेरित " ह्त्या " से.
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