हाशिया के किस्से:
प्रेस क्लब का दारोगा
हिन्दुस्तान के किसी सूबे की राजधानी में कभी किसी राष्ट्रीय समाचार संस्थान के एक ब्यूरो प्रमुख थे , ठाकुर साहिब.वह उस संस्थान के किसी जिले के अंशकालिक संवाददाता से उसके राज्य प्रमुख के रसूखदार पद तक पहुचे थे. उन्हें ये कामयाबी अपने जिले के एक नेता के रहमो -करम से मिली थी जो सूबे के मुख्यमंत्री बन बैठे थे. उस सूबे की राजधानी में बतौर ब्यूरो चीफ ठाकुर साहिब के दर्जन-भर बरस से ज्यादा के कार्यकाल में पुलिस के एक दारोगा ने उनकी जो खिदमत की वह नायाब है।
ये किस्सा, किसी से भी बिन बैर -भाव और मोहब्बत के मैंने कुछ सहपाठी मित्रों के एक बंद फेसबुक समूह में कुछेक वर्ष पहले सुनाई थी.वह समूह अव विघटित हो चुका है. फेसबुक के अत्यंत सीमित सदस्यों के एक पेज पर ये किस्सा कंही दबा पड़ा था जो एक साथी ने सीमित वितरण की मासिक पत्रिका में 'मीडिया के किस्से' शृंखला की पहली कड़ी बतौर छाप दी. दुर्भाग्य से वह अंक अबतक मेरे हाथ नहीं लगी. किस्सा अब खुले आम पेश करने कोई हर्ज नहीं.
ठाकुर साहिब बिला नागा आधी रात तक प्रेस क्लब में ' बैठते ' थे. क्लब के पास बार का लाइसेंस नहीं था अपनी कोई कैंटीन भी नहीं.लेकिन वाटर कूलर ,ठंढे पानी और ढेर सारे ग्लास का 24 X 7 प्रबंध रहता था. बांकी ' सामान ' बाहर से चला आता था . क्लब के बगल में तरह-तरह के कबाब आदि की दुकानों की कतार थी .ठाकुर साहिब देर शाम तक अपने टू --व्हीलर से क्लब पहुँच जाते थे. लेकिन वहां से वह आधी रात को उनके घर उस दारोगा द्वारा पुलिसिया फोर -व्हीलर में ही पहुचाये जाते थे.
एक दिन प्रेस क्लब में देर रात प्रगट उस दारोगा से मैंने हिम्मत कर पूछ लिया, " ठाकुर साहिब की इतनी भक्ति कैसे ? " वह बोले , " क्यों ना हो ? आप ब्यूरो चीफ बनेगे तो जान जायेंगे , आपके भी खिदमतगारों की कोई कमी नहीं होगी.ठाकुर साहिब ने मुझे मनवांछित थाना दिलवा रखा है और उनके रहते वहां से मेरा तबादला नहीं हो सकता " मैंने कहा , " दारोगा साहिब , वो तो ठीक है , यहाँ जो खिदमत होती है वह देखता ही हूँ , यह भी पता है कि आप ठाकुर साहिब को और आपके बन्दे उनके दुपहिये को उनके घर पहुंचा आते हैं. लेकिन ठाकुर साहिब को ऐसे टुन्न हालत में घर पहुंचा कर क्या करते है आप ? ".जवाब मिला, " मैं कभी उनके घर के भीतर नहीं गया.मियाँ- बीवी बीच दारोगा क्या करेगा ?. मैं उनके घर के दरवाजे पर छोड़ खिसकने से पहले दो बार काल बेल बजा देता हूँ . यही सिग्नल है मियाँ के बीवी तक पहुँच जाने का ".
सहपाठी मित्रों के बीच किस्से के वाचन के और आगे नहीं बढ़ने पर किसी मित्र ने कहा , " आगे की कहानी कौन कहेगा ? क्या ठाकुर साहेब बताएँगे ?".दिल्ली में बसे आजमगढ़ के एक प्रोफ़ेसर दोस्त ने मेरा तनिक बचाव करते हुए कहा, " अमां यार, ये अपने किस्से हमेशा टुकड़ों में ही बयाँ करता है" .
मैंने हार कर कहा , " भाई ये किस्सा , टुन्न मियाँ को प्रेस क्लब से उसकी बीवी तक पहुचाने भर का था . घर के भीतर का किस्सा जब दारोगा को नहीं मालूम तो मैं किस खेत की गाजर-मूली !
पुलिस के एक आला अफसर पद से स्वैछिक सेवानिवृत्त के बाद गपियाने में दक्ष एक साथी ने कहा , " कहानी तो सच में समाप्त ही प्रतीत होती है.विदेश में पीएचडी कर रही एक महिला दोस्त ने हस्तक्षेप कर कहा , " उन्होंने जो देखा वह सुना दिया. कहानीकार की कल्पना को , जो नहीं देखा , उसमें क्या -क्या हुआ उसे पाठकों के विचारार्थ छोड़ देते है" .
मुझे कहना पड़ा , " लेडीज और भाई लोगों , आपने ये किस्सा ' लाइक ' किया . शुक्रिया. ये १०० प्रतिशत सच्चा किस्सा है. किस्सा वहीँ तक था जो सुनाया बस एक बात रह गयी.जैसे हर पत्रकार का काम का कोई ना कोई बीट होता है उसी तरह कुछ बड़े ओहदेदार पत्रकारों की महारत होती है ट्रान्सफर -पोस्टिंग के धंधे मे. ठाकुर साहिब को ये महारत पुलिस वालों के ट्रान्सफर -पोस्टिंग में हासिल थी.लेकिन वो दारोगा के स्तर से आगे नहीं बढे.कभी किसी आईपीएस अफसर को छेड़ा नहीं , छुआ नहीं ,जिन्दगी मज़े में कट गयी. अब तो रिटायर हो गए हैं - पता नहीं कहाँ और कैसे ' बैठते " हैं
पुलिस के आला अफसर रह चुके उक्त साथी ने हामी भरते हुए कहा ," .पूरी तरह सहमत हूँ तुमसे. कई पत्रकारों ने ना केवल ट्रांसफर आदि को ही अपना बीट बना लिया है बल्कि कईओं ने तो बाजाप्ता एकटोर्शन में भी काफी महारत हासिल कर ली है. ठाकुर साहब निश्चित रूप से बहुत बुद्धिमान थे .देश के क़ानून के अनुसार पुलिस की सारी शक्तियां दरोगा में ही केंद्रित हैं. दरोगा से ऊपर के स्तर के किसी भी पदाधिकारी को ऐसी कोई कानूनी शक्ति प्राप्त नहीं है जो दरोगा के पास नहीं हो ! इसलिए ठाकुर साहब ने अपना बीट बढ़िया चुना था !! और दारोगा ने भी प्रेस क्लब में उनकी वर्षों खिदमत कर अपना जन्म सार्थक कर लिया!!!
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