हाशिया के पत्र :
एक चिट्ठी मरने बाद
मुंबई
/ रविवार , सात अगस्त , 2011
अभय ,
कौन थे तुम मेरे ...... हमारे ? क्या 'रिश्ता ' था हमारे बीच ? क्यों मुझे यह चिट्ठी लिखनी पड रही है ? कौन देगा इन सबका और बहुत सारे अन्य प्रश्नों का भी जवाब ? क्यों मुझमें ही नहीं तुम्हारे कई मित्र , परिचितों के मन में कुछ ग्लानिभाव है? कौन फैसला करेगा तुम -हम कहाँ तक सही थे .....और कहाँ गलत हो गए ? मेरे लिए फिलवक्त सबसे बड़ा सवाल कुछ और है.
मैं और शायद कुछ अन्य लोग भी अब तुम्हारे बारे में जो कुछ कह -लिख रहे हैं क्या वह आत्महत्या करने के तुम्हारे अंतिम कृत्य को 'गौरवान्वित ' करना है ? टीसता है मुझे सवाल . कोई जवाब नहीं सूझता. तुम्हे याद ना करें ? तो फिर क्या करें ? तुम्हे पुलिस की भाषा में "सामाजिक अपराधी " बोल दूं ? या फिर हमारे बीच तुम्हारे ना रहने पर निःशब्द अपने इंसानी कर्तव्यों की ईतिश्री मान लूं ?
रविवार सात अगस्त 2011 को दिल्ली में तुम्हारी याद में की जाने वाली एक शोक सभा के आयोजकों से मैंने आग्रह किया है कि तुम्हे मरणोपरांत संबोधित मेरी यह चिट्ठी सबके सामने पढ़ दी जाए . मैं खुद वहां उपस्थित नहीं रहूंगा. मेरी ईच्छा है तुम्हारा कोई निकटस्थ परिजन या मित्र तुम्हे लिखी मेरी यह चिट्ठी पढ़े . हाँ , मुझे पता है , तुमने अपने सुसाइड नोट में तुम्हारी याद में कोई शोक सभा करने की सख्त मनाही की थी . तुमने किस नैतिक अधिकार से ये मनाही की थी ?
एक बात साफ़ कह देता हूँ ? मैंने खुदगर्जी में तुम्हे ये चिट्ठी लिखी है. मुझे मालूम है इस चिट्ठी से तुम्हारा कुछ भी भला-बुरा नहीं होने वाला है. अपने भले -बुरे की सोच कर यह चिट्ठी लिख रहा हूँ. हो सकता है मुझे ही नहीं , अन्य लोगों को भी हमें कचोट रहे कुछ सवालों के जवाब मिल जाएँ . शायद वो जवाब हासिल कर हमारे बीच आत्महत्या करने की सोच रहा कोई अब वह कृत्य ना करे जिसे मैं और अन्य लोग कुकृत्य नहीं भी कहें , सुकृत्य तो कत्तई नहीं कह सकते . इस चिट्ठी के सार्वजनिक वाचन के बाद मैं उसे फेसबुक पर तुम्हारे वाल पर चिपका दूंगा ताकि जो भी चाहे वहां तुम्हारे अंतिम कृत्य पर अपनी टीका - टिप्पणी लिख सकें।
तुम्हारा अनादर ना हो और तुम्हारी निजता मरणोपरांत भी बनी रहे , इसलिए मैं अपनी इस चिट्ठी में उन कई बातों का जिक्र नहीं करूँगा जिन्हें लोग व्यक्तिगत मामला मानते है. हालांकि मेरी राय में कोई भी मामला जब एक से अधिक ब्यक्ति से ताल्ल्लुक रखे तो उसे व्यक्तिगत कहना सही नहीं होगा . लेकिन मैं चाहूँगा कि निजता का जितना अधिकार हम जीवित प्राणियों को है उतना तुम्हे मरणोपरांत भी रहे.
इससे एक बात तो सिद्ध होगी शायद कि किसी के जीवन के बाद भी बिल्कुल जीवन जैसा ना सही लेकिन कुछ तो बचा रहता है जो हक़दार होता है , निजता का , गैर -ब्यक्तिगत उदगार का , सार्वजनिक सन्दर्भ का , शिकायत का , सामुदायिक सबक का ....और बहुत सारी बातों का . कुछ बात खुल कर लिख रहा हूँ , कुछ का शायद ना चाह कर भी सूत्रों में ऊलेख हो जाए और कई तो दफ़न हो ही जायेंगे समय की चादर से..
1980 के दशक के प्रारंभ में तुम्हारी पहल पर जेएनयू के छात्त्त्रों और उससे जुड़े कुछ अन्य का एक मंच बना था. इसके शुरुआती दौर में मैं भी शामिल था . मंच क़ी और से कथ्य नाम क़ी एक त्रैमासिक हिंदी पत्रिका प्रकाशित हुई थी. लेकिन उसका एक ही अंक निकला। उस पत्रिका के संपादक मंडल में मनमोहन , असद जैदी , नागेश्वर यादव , शुभा , आभा दयाल , अमित सिन्हा , अजय ब्रह्मात्मज, संध्या चौधेरी आदि शामिल थे. हाल में मैंने जब तुम्हे उस प्रयोग से सम्बंधित एक कार्टून भेजी तो तुमने कहा था , " कहाँ से पिछले जन्म की ये चीजें निकाल पाए ". मैं नहीं समझ सका कि तुमने उस प्रयोग के प्रति ये विरक्ति क्यों व्यक्त की....
जेएनयू से निकल कर तुमने भारतीय जनसंचार संस्थान में पत्रकारिता का अध्ययन किया और फिर कई जगह काम किये . 1980 के मध्य में बिहार में निजी सेनाओ के बारे में फ्रेंच न्यूज़ एजेंसी , AFP के लिए तुम्हारी कई रिपोर्ट चर्चित हुई थी. फिर तुम कैसे और क्यों पत्रकारिता से विमुख हो गए ?
हाल में तुमने मुझसे फ़ोन पर लम्बी बातचीत में जो कुछ कहा था वह सब याद आता है। तुमने कहा था " ....दुनिया हमेशा से ऐसी ही थी , है और ऐसे ही रहेगी .हम दुनिया नहीं बदल सकते .दुनिया जरुर हमे खतम कर सकती है . एक बेहतर दुनिया बनाने की हमारी कोशिश का कोई मतलब नहीं है अगर दुनिया नहीं बदलना चाहे . हम दुनिया के मुताबिक नहीं चले तो दुनिया के लोग हमें दरकिनार कर ही देंगे ....... " मैं समझ नहीं सका कि तुम क्या करने जा रहे हो ...
शायद उसके बाद फ़ोन पर ही हुई एक अन्य बातचीत में मैंने खुद जब अपने हालात का जिक्र कर कुछ कहा था तो तुमने कहा था , " ऐसा कुछ भी नहीं करो , तुम पर अपने परिवार की ही नहीं कई सामाजिक जिम्मेवारी भी है " . तो हे अभय , तुम बताओ कि क्या तुम पर कोई सामाजिक जिम्मेवारी नहीं थी ? तुमने खुदकुशी क्यों की ?
अभय , किसी के नहीं रहने पर उसे कोई ' गोद' ले सके मैंने तो देखा नहीं . लेकिन कोई अब तुम्हे सामजिक रूप से परिभाषित किसी रिश्ते में ' गोद ' लेने का ईरादा कर आगे बढे तो क्या होगा ? . अगर तुम्हे सच में लग रहा था कि इस दुनिया में तुम्हारा कोई परिजन नहीं है तो क्या कोई अब भी , तुम्हारे सम्मान में , तुम्हारी बेहतर याद में तुम्हे किसी परिजन के रूप मैं गोद ले सकता है क्या ? यह कह कर मैं किसी को भी कोई सुझाव नहीं दे रहा , ना ही किसी को रोक रहा हूँ ऐसा सोचने -करने से...
शनिवार 30 जुलाई , 2011 को दिल्ली के पास नोएडा में तुम्हारी ' आत्महत्या ' कर लेने की खबर मुझे एक दिन बाद रविवार की सुबह मेरे -तुम्हारे पुराने मित्र , प्रोफ . ईश मिश्र ने फ़ोन कर यह कहते हुए दी कि मुझे खुद इस खबर की पुस्ष्टि करनी होगी . कुछेक घंटे में पुस्ष्टि भी हो गयी . और कुछेक घंटे बाद मैंने जेएनयू के पूर्व -मौजूदा छात्रों के फेसबुक पर बने क्लोज्ड ग्रुप में से दो पर , एक जैसे डाले अपने पोस्ट में कहा , " अत्यंत दुःख के साथ सभी साथिओं को सूचना देनी है कि जे एन यू ( सीएचएस ) के छात्र रहे पत्रकार -लेखक अभय सिन्हा हमारे बीच नहीं रहे. पुलिस के हवाले से नई दुनिया के दिल्ली संस्करण में आज छपी एक खबर के मुताबिक अभय ने आत्महत्या कर ली . और अधिक विवरण तत्काल उपलब्ध नहीं है . 1978 के इस फाइल फोटो में पेरियार हॉस्टल - 305 में बिस्तर पर अधलेटे अभय के साथ चमन लाल जी और उदय सिन्हा है...
वो फोटो चमन लाल जी ने बहुत पहले तुम्हारे फेसबुक वाल पर डाली थी. पचास से ज्यादा मित्रों ने उन पोस्ट पर अपनी बातें रखीं जिनमें से सबका जिक्र करना उचित नहीं होगा. मैंने अपने उस पोस्ट के आरंभिक वक्तव्य में कहा , " पुलिस इसे आत्महत्या कहेगी ठीक जैसे उसने गोरख पाण्डेय जी के हमारे बीच नहीं रहने पर कहा था. लेकिन ठीक जैसे उदय प्रकाश जी ने कहा था कि गोरख पाण्डेय ने आत्महत्या नहीं की , व्यवस्था ने उनकी हत्या कर दी मुझे लगता उसी व्यवस्था ने अभय की भी हत्या कर दी...
प्रारंभ में ईश ने कहा तुमने आत्महत्या कर सामाजिक अपराध किया है. ढेर सारे सन्दर्भों के बाद मेरे ये कहने पर कि , " समाज किसी का जीना मुहाल कर दे , घुट -घुट कर जीने दे लेकिन तिल तिल मारे ,फिर भी उसको खुद की जान ले लेने पर " सामाजिक अपराधी " बोलोगे . वाह ईश , वाह तुम्हारा समाज !!!! " ईश ने कहा कि वह , मेरी बात से पूरी तरह सहमत है...
ईश ने तुमसे हुई अपनी अंतिम मुलाक़ात का जिक्र कर यह भी कहा , " .एकाकीपन से टूटन झलक रही थी. एक साल बाद फिर किसी कारण अभय विश्वविद्यालय आये तो फिर एक बैठक हुई. इस बार अभय कला-साहित्य की व्यर्थता पर जोर दे रहे थे. छिपाने के बावजूद एकाकीपन की पीड़ा झलक रही थी. यह अंतिम मुलाक़ात थी उसके बाद हम फोन पर मिलने की बातें करते रहे, लेकिन मिले नहीं" उसके बाद शनिवार को खबर मिली की अभय ने इस दुनिया को बदलने की बजाय खारिज कर दिया"...
जेएनयू के ही पूर्व छात्र अटल बिहारी शर्मा ने कहा , " कोई आत्मघात नही करना चाहता ,इंसान में जीने और जूझने की ललक स्वाभाविक तौर पर होती है .......हर कोई भरसक जूझता भी है ........फिर परस्थितियाँ ऐसा जाल बुनती है कि वो इतना टूट जाता है कि उसे मरने की ललक लग जाती है .......फिर समाज ,दोस्त ,और परिवार किसी के पास इतना समय और संयम नही रहता कि सब्र से दो पल बिना न्यायधीश हुयें उसकी बात सुन ले .....और जब वो मौत के आलिंगन में चला जाता है .....तब अचानक हमारे पास वक्त आ जाता है .........यादों कि जुगाली या कसीदे पढनें का ...और फिर कुछ समय बाद सब कुछ शांत ....जिंदगी अपनी लीक पर चलने लगती है ....ऐसी ही किसी अगली सूचना तक ......अपने दुःख दर्द को साझा करने की इच्छा रखने वाला मित्र चाट और महा चाट लगने लगता है और हम किनारा करने लगते है ,अपनी व्यस्तता का आवरण रच ..अपने बनाये जाल को बुनते चले जाते हैं ...."
नीलम जैन ने कहा , " Very sad indeed! it seems loneliness is becoming endemic and when it becomes unbearable, ending life seems the only way out! Support groups are very essential to help friends who are caught in the trap of loneliness/depression"..
लेकिन जेएनयू के ही एक पूर्व छात्र और भारतीय पुलिस सेवा से स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण कर चुके एक आला अधिकारी ऋतू राज जी ने मुझे और ईश को लताड़ते हुए कहा कि हम दोनों तुम्हारी आत्महत्या को गौरवान्वित कर रहे हैं . उन्होंने अंग्रेजी में जो कुछ लिखा वह ज्यों का तों उदृत कर रहा हूँ इसलिए कि उसके बाद फिर वहां तुम्हारी कोई चर्चा नहीं हुई ....
ऋतू राज जी का कहना था , " Yes, the sudden death of Abhay is distressing. But what is it that you are trying to prove? That suicide is a noble course of action? That it was a brave step that Abhay took? That suicide is a glorious way of ending life? That only friends/ society/ circumstances/ system need to share the burden of guilt? That the deceased was not really a weak individual? That it would be a great if a few of us also emulated him? I am sorry, but I cannot agree with any amount of justification which tries to glorify a suicide. Life has a habit of throwing rather nasty surprises on all of us ... and each one of us deals with them rather than taking recourse to suicide. And ultimately, every man (or woman) has to bear his / her own cross ."
अभय , मैं अब और कुछ नहीं लिख सकता . मुझे जो कुछ भला-बुरा कहना था कह दिया. तुम्हारी सामान्य मृत्यू होती तो शायद कुछ नहीं लिखता . तुम्हे असाधारण पत्रकार , लेखक और नागरिक बनना था. लेकिन तुमने जीवन की जटिलताओं से उबरने का सबसे आसान रास्ता चुन कर खुद को और हम सबको कटघरे में खड़ा कर दिया .
सुमन
पुनश्च : बहुत बाद में मैंने अपने फेसबुक टाइमलाइन पर कथ्य का वर्षों संभाल रखा ब्रोशर पोस्ट किया तो मनमोहन जी चौंक पड़े। बोले , " अरे वाह … अभय की बहुत याद आती है अक्सर।" मैंने कहा " अभय की स्मृति शेष रहेगी . बटोर रहे हैं हम उनके चिन्ह . उनका फेसबुक खाता सलामत है . कुछ यादें वहाँ भी संजोई गई है."
शुभा दी ने कहा , " अभय की स्मृति दुख से अलग नहीं हो पाई है अभी तक,उसके बारे में बात करने का भी मौका नहीं मिला.
मैंने कहा , " मैंने अभय सिन्हा को मरणोपरांत सम्बोधित एक पत्र लिख उनकी स्मृति में जेएनयू सिटी सेंटर ( 35 , फिरोजशाह रोड , नई दिल्ली ) में हुई शोक सभा में पढ़ने के लिए वन्दना शर्मा जी को भेजा था. उन्हें वो पत्र शायद नहीं मिला होगा। वक़्त की दरकार है कि वो पत्र सबके सामने आये. वो पत्र अभी एक अलग पोस्ट में सबके सामने रख रहा हूँ. "
अजय ब्रह्मात्मज बोले , ' ले आओ '
जब जेएनयू हॉस्टल में चमन लाल जी और उदय सिन्हा संग तुम्हारी उपलब्ध एकमात्र तस्वीर अलग पोस्ट में फेसबुक पर डाल ये चिट्ठी नत्थी कर दी तो साथियों ने जो कुछ कहा निम्नवत है :
सुयश सुप्रभ : ऐसा क्यों होता है कि कॉमरेड अपने एकांत को रचनात्मकता से नहीं भर पाते हैं? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब हमें मिल-जुलकर ढूँढ़ना होगा। अभय सिन्हा की आत्महत्या की ख़बर सुनकर दुख हुआ। आपने बहुत सही सवाल उठाए हैं।
अमिताभ बच्चन : अभय के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है. मुझे उनके जीवित मित्रों और परिचितों के बारे में जरूर कहना है. उनमें से अधिकांश अवसादग्रस्त हैं. दवाएं खाते है. मगर अपना अवसाद छुपाते हैं. निराशा और अवसाद की अपनी दुनिया को निजी चीज समझते हैं. ज्यादातर अभय के मित्र अपने काम और उपलब्धियों से असंतुष्ट हैं, काम से जुड़ी नीचताएं उन्हें खिन्न बनाए रखती हं. वे निरंतर आत्महत्या कर लेने के बारे में सोचते रहते हैं. ये मेरी भी हालत है और बहुत सारे संवेदनशील दोस्तों की. मगर इस सबसे मुझे कोफ्त नहीं होती. ये दौर है. हम अपने दौर के उत्पाद हैं. अच्छे-बुरे.
हम मार्क्सवादियों के बीच बहुत सारे लुच्चे, लफंगे, कायर, आत्मग्रस्त, जातिवादी और अनेक किस्म की हीनता ग्रथि से ग्रस्त प्राणी हैं. कुछ ऐसे हैं जो एनेलजेसिक की तरह बीच बीच में मार्क्सवाद लेते रहे हैं, वे कभी भी आत्महत्या कर सकते हैं.
हमेशा नशे मे धुत रहना, हर तरह से निष्क्रिय हो जाना, कुंठाओं से ग्रस्त होकर दोस्तों से मुंह छुपाना, ये सब भी आत्महत्या है, इसमें सिर्फ शरीर जीवित रहता है. अभय कहता था कविता कहानी लिखने से क्या होगा. इसका मतलब होता था जीने से क्या होगा. अभय मर गया पर हमारे सैकड़ों जीवित मित्र सोचते हैं लिखने से क्या होगा.
मैंने कहा : अमित , तुम्हारी तीनों टिप्पणी गौर से पढ़ीं। कुछेक बार और पढूंगा। फिलहाल किसी भी बात का कोई जवाब नहीं दे सकता।
अमिताभ बच्चन ने फिर कई किश्तों में लम्बी टिप्पणी की : सुमन, तुमसे किसी जवाब की उम्मीद में मैंने ये सब नहीं लिखा. अभय हमारे दिमाग और शरीर का हिस्सा है. वह मर कर भी मेरे अंदर जिंदा है. मैं दो बार दिल्ली की परेशानियों से तंग आकर दरभंगा भाग गया. वह दोनों बार दरभंगा से पकड़कर मुझे दिल्ली ले आया. उसने असली भारत में मुझे जिंदगी की पहली नौकरी दिलवाई. उसने मुझे प्यार करना सिखाया. वह मेरी हरकतों और हावभाव पर खिलखिलाकर हंसता था. मैं उसे अपने साथ का समझता मगर वह मुझे छोटे भाई वाला प्यार देता था.वह अपने जीवन के हादसों के बारे में रहसिय बनाए रहता मगर मेरे जीवन के हादसों के बारे में जरूर पूछता. अलबत्ता जब भी वह गंभीर रूप से बीमार पड़ा और मैंने विस्तार से जानना चाहा तो उसने सारी बातें बताई. वह मुझेे अपने बराबर योग्य और संवेदनशील नहीं समझता था पर मैं उसके बड़े भाई वाले प्रेम और सुरक्षा देने वाली भावना से प्रसन्न रहता था. मैं उसकी कर्मठता का कायल था. वह शुरू से जिम्मेदार, अनुशासित नजर आता था. नौकरी और जीवन की जिम्मेदारियों का गंभारता से निर्वाह करता था और मेरी अराजक बातों पर मासूम बच्चों की तरह हंसता था.
वह द्वारका की लापरवाही, काहिली और गंदे कपडे जमा करते जाने और उन्हें साफ करने के बजाए फिर से पहन लेने की बात सुनाकर हंसता था. मौत से करीब बीस दिनो पहले वह पटना आया. संयोग से मुलाकात हुई. खूब बातें हुई. मैंने बढ़चढ़ कर जीवन के अपने निजी संघर्षों के बारे में बताया . उसने बातचीत के दौरान कई बार मेरी पीठ पर हाथ रखा. दो बार हम सीने से लगे उस मुलाकात में उसने कोई निराशाजनक बात नहीं की. अभय की सैकड़ों यादें हैं. वह स्नेह और प्रेम का भंडार था. वह मेरा सच्चा शुभचिंतक था. वह मेरे लिए मरा नहीं है. वह हर वक्त मेरे साथ है. वह ेेजांघ पर हाथ मार कर बात करने की मेरी शैली पर जोर जोर से हंसता था. मैैं वह एक्ट अकेले में आज भी दुहराता हूं और हंसता हूं.
मेरे लिए अभय की जिंदगी का मतलब है औरों को प्यार करना, पूरी ताकत से और निस्वार्थ भाव से प्रोटेक्ट करना और जिंदगी चाहे जिंतनी दमघोंटू हो उसे शिद्दत से जीना. इस सबके बावजूद मुझे अपनी अवसादग्रस्तता को छुपाने की कोई वजह समझ में नहीं आती. जरूरी कामों केलिए पैसे का अभाव, लोगों से मिला तिरस्कार, कई आत्मीय जनों की असमय तकलीफदेह मौत, मिंया-बीवी के तनाव, तरह तरह की निजी जीवन की असुरक्षाएं, इन सबों से मैं विचलित हुआ हूं. नौकरी की घृणित किस्म की बाध्यताएं और साथ वालों का व्यवहार और कई किस्म की फोबिया... सब साथ चले हैं. मैं इन्हें छुपाना व्यर्थ समझता हूं. मैं समझता हूं कि इसे सार्वजनिक कर देने का साहस भी जरूरी है. इससे जीना आसान होता है. अभय से जुड़ी यादों के विस्तार में जाने से मुझे डर नहीं लगता. मुझे इससे जीने का हौसला मिलता है.
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