Search This Blog

Sunday, September 13, 2015

नौ-गज्जा साड़ी का अनखेला नाटक

  हाशिया के किस्से : 012 


 

 

नौ-गज्जा साड़ी का अनखेला नाटक


जेएनयू के देश -विदेश  में पसरे पूर्व छात्र- छात्राओं के एक क्लोज्ड फेसबुक ग्रुप में शनिवार,  23 सितम्बर 2011 को दिल्ली में तैनात बिहार के एक अफसर- मित्र रंजन शर्मा ने दरभंगा के सीएम साइंस कॉलेज का एक बेहद पुराना फोटो पोस्ट कर कुछ बातें कही. बातों- बातों में उस पोस्ट पर मैंने उसी  कॉलेज के अपने दिनों का एक किस्सा सुना दिया.किस्से तो किस्से होते हैं. कुछ सत्य , कुछ असत्य भी और कुछ वो भी जो सत्य-असत्य के पार हो सकती हैं. जाहिर है उसकी झलक मेरे और किस्सों की तरह इस किस्से में दिख सकती है.

अब लगभग विघटित हो चुके उस ग्रुप मैंने जब ये किस्सा सुनाया तो उसके श्रोताओं में दरभंगा के उस कॉलेज में पढ़े शैल झा भी शामिल थे. वह अब इटली में रहते है. ऋतू राज , भारतीय पुलिस सेवा के बिहार काडर के एक बड़े पद से स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण कर नालंदा जिले के अपने पैत्रिक गाँव में  पत्नी - जेनीफर के साथ रहते हैं .दोनों जेएनयू में साथ थे. जगजीत सिंह मधुबनी जिले के हैं और अभी न्यूयोर्क में एक एनजीओ चलाते हैं . स्वप्ना शर्मा स्वीडेन में बस गई है और दूरसंचार की एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी  में कार्यरत हैं. उनीता सच्चिदानंद को मैं  'सरहज जी' कहता हूँ. वह दिल्ली विश्विद्यालय में जापानी क़ी प्रोफेसर है और बिहार के सच्चिदानंद जी क़ी ब्याहता हैं जो खुद अब जेएनयू में ही प्रोफेसर है .दोनों जेएनयू में ही रहते हैं . अटल बिहारी शर्मा जेएनयू में मेरे वर्ग -सखा थे और दिल्ली में बस-सा  गए हैं.किस्सा सुनाने के दौरान  टीका-टिप्पणी करने वालों में और अनेक मित्र हैं.

जेएनयू के ज्यादातर मित्र मुझे सुमन ही कहते है.  'दुल्हन '  , शब्द-सम्बोधन का उपयोग मैं अपनी पत्नी के लिए सर्वनाम की तरह करता रहा जो  पहले इस ग्रुप क़ी सक्रिय सदस्य थीं. उन्हें  ब्याक्तिगत जीवन की बातें सार्वजनिक सन्दर्भ में लाना पसंद नहीं. और मैं , ' पारदर्शी प्रामाणिकता ' के साथ जीना पसंद कर इस मंच पर अपने मित्रों के बीच दादी क़ी कहानियों से लेकर अपने भी ढेर सारे किस्से सुनाता रहा. ' कलम का सिपाही ' होने के नाते मैं खूब लिखता रहा हूँ. उस लेखन में जगबीती से लेकर आपबीती भी होती है. लेकिन ' सब कुछ ' नहीं होता . और जो भी लिखता हूँ उसे स्वनिर्धारित मर्यादा क़ी सीमा आम तौर पर लांघने नहीं देता. दूसरों की निजता का अनादर किस्सों में भी ना झलके इसकी कोशिश हमेशा रही.

ग्रुप में ये किस्सा सुनाते वक़्त ही ख़याल आया कि इसकी मूल कथा -वस्तु को खुले आम प्रगट करने के पहले कॉलेज के अपने दिनों के फेसबुक पर मौजूद मित्रों  में से चार को पढने भेज दूं . उनमें से किसी भी एक क़ी कोई प्रतिक्रया मिलने के बाद ही इस किस्से का और कुछ इस्तेमाल करने के लिए उसे संपादित कर फिर से लिखूं. कॉलेज ज़माने के जिन मित्रों को मैंने भूल-सुधार के लिए ये किस्सा , असंपादित रूप में भेजा उनमें से एक मिथिलेश कुमार झा ने अपनी लिखित प्रतिक्रिया दी जो पेशेवर मनोचिकित्सक हैं और इंग्लैंड जाकर सर आईजक न्यूटन के उसी शहर में बस  गए हैं जहां डान ब्राउन के  चर्चित थ्रिलर  ' दा विंची कोड'  का उपसंहार हुआ. बहरहाल किस्सा यूं है :


ग्रुप में रंजन शर्मा ने अपने एक फोटो पोस्ट में इत्तला दी : " श्रीमती कुमुद सिंह के अनुसार दिल्‍ली के कनॉट प्‍लेस की तर्ज पर दरभंगा को प्‍लान करते समय अंगरेज वास्‍तुविद ने 1934 में इस गोल मार्केट को बनाया था. यह दुर्भाग्‍य ही कहा जाए कि इस मुख्‍य बाजार को लोगों ने कॉलेज बना दिया. श्रीमती सिंह कहती हैं कि मैं जब भी कनॉट प्‍लेस जाती हूं, इस जगह की याद आ जाती है, फिर गुगल में इसे देख लेती हूं . आप भी इसे देखिए और कुछ जोड़ना चाहते हों तो जोडीये ."
.
मैंने अंग्रेजी में कहा , ' थैंक यू रंजन भाई फॉर पोस्टिंग दिस इमेज.  ऑन अ पर्सनल नोट , आई विश टू से दैट आई वाज अ स्टूडेंट ऑफ़ सीएम सांइन्स कॉलेज , मेंशंड  इन दिस पोस्ट  ,  फ्रॉम 1974 to 1978 .बट आई थिंक इट वाज़ नोट अ बैड आयडिआ टू  कन्वर्ट दैट ओल्ड मार्केट इंटू अ कॉलेज. द कॉलेज वाज़ ओरिजनली काल्ड चंद्रधारी मिथिला कॉलेज ( सीएम कॉलेज ) व्हिच वाज़ लेटर बाय्फरकेटेड , इन मिड-1970s , इनटू टू  , सीएम कॉलेज एंड सीएम सांइन्स कॉलेज .

ग्रुप में चुप्पी देख मैंने चाय पीने के बाद कहा : " एक लिंक < http://wikimapia.org/4678154/C-M-Science-College> दे रहा हूँ जो ना सिर्फ उस कॉलेज का बल्कि पुराने दरभंगा शहर का विहंगम दृश्य दिखाता है . पश्चिम में छोटी बागमती नदी है जिस रास्ते से पहले कमला नदी बहती थी . बागमती नदी के तट पर किल्लाघाट में सीएम कॉलेज का नया परिसर बना है जहाँ कला और वाणिज्य का शिक्षण होता है. अब भाईलोग कुछ बोलें तो और सुनाऊँ.

रंजन शर्मा ने टोका : " शायद श्रीनाम धन्य १०८ श्री विभाकर झा आजाद भी इसी महाविद्यालय में पढ़ाते थे" .

मैंने कहा , " दिवंगत विभाकर आजाद का विज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं था .वह दिल्ली में द स्टेसमन में कुछ माह खबरनवीस रहने के बाद सीएम कॉलेज , दरभंगा के कला संकाय में प्राद्यापक रहे थे "

अटल बिहारी शर्मा ने रोमन लिपि में कहा , " कथा कहानी जारी रखा जाए भाईलोगों ".

मैंने कहा  : कोई बात नहीं अटल जी , अपना किस्सा और सुनाने की मैंने जो पेशकश की थी उसे रंजन भाई के बाद अब ऋतू भाई ने भी लाइक कर मेरे सर पर पुलिसिया पहरा होने के मनोवैज्ञानिक खौफ का "एनकाउंटर" कर दिया है. अभी हाज़िर होता हूँ चाय की एक और गर्म प्याली और कांदा भजिया के साथ. शायद तब तक कुछ और ग्यानी -गुनी श्रोता जुट जाएँ यहाँ .


रंजन शर्मा ने कहा :  सुनाइये भाई.... सुनाइये. यह पोस्ट तो सिर्फ मैथिल समाज को सक्रिय करने और उनके द्वारा इस कनाट प्लेस के अंतरंग बातें बताने के लिए ही लगाया गया है.

मैंने कहा :  शैल और जगजीत दरभंगा के बारे में मुझसे ज्यादा जानकारी दें सकते हैं. मैं इतना जरूर बोलना चाहूँगा कि इस गोल मार्केट के सिवा पूरे शहर में 1980  तक कुछ भी नियोजित नहीं था . गोल मार्केट में एक सौ से अधिक दूकाने रही होंगी . कॉलेज बनने के बाद उनकी आंतरिक संरचना में काफी परिवर्तन किये गए. वाह्य-संरचना जस-की -तस रही.  लेकिन खाली जगह पर चार लैब बनाये गए.  गोल मार्केट के उत्तरी सिरे के पीछे एक टावर था , जो अभी भी है. दक्षिणे सिरे पर मुख्य द्वार है जिसका पहला कक्ष बॉयज़ कामन रूम और दूसरा कक्ष गर्ल्स कामन रूम है. इन दोनों कामन रूम के रोचक किस्से है. इस कॉलेज के इतिहास में मैं पहला छात्र था जिसे कॉलेज डे के उपलक्ष्य में खेले जाने वाले एक नाटक के पटकथा लेखक और निदेशक के बतौर उस नाटक के रिहर्सल के लिए गर्ल्स कामन रूम में प्रवेश की विशेष अनुमति मिली थी. रिहर्सल माह भर चला . नाटक में जिसे नायिका का अभिनय करना था उसे नायक का किरदार निभाने वाला लड़का पसंद नहीं था. नायिका के जोर देने पर मैंने उस लड़के को हटा तो दिया लेकिन रिहर्सल के दो  हफ्ते गुजर जाने के बाद भी कोई सही नायक नहीं मिला . नाटक के सारे पात्र रिहर्सल करते-करते मंज़ गए थे . लेकिन बिन नायक वह नाटक मेरा सिरदर्द बन गया.

रंजन शर्मा :  फिर क्या हुआ ?

मैंने किस्सा जारी रखते हुए कहा : मैंने कॉलेज डे पर मंचन के लिए जगदीश चन्द्र माथुर के 1959  में लिखे एक ऐतिहासिक नाटक ‘शारदीया’ का चयन किया था जिसमें प्रेम और सर्जनात्मकता के अन्तर्सम्बन्धों का बारीक निरूपण है. माथुर जी 1941 बैच के बिहार काडर के आईएएस अफसर थे. उन्होंने प्रशासक के रूप में बिहार में तीन दशक के कार्यकाल में वैशाली, नालंदा, मिथिला और मगध के जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण में महती योगदान दिया . बाद में उन्होंने आकाशवाणी के महानिदेशक के तौर पर देश की सभी भाषाओं और कला-साहित्य की प्रतिभाओं को जोड़ा.  अब अपने नाटक की कहानी पर आता हूँ. कहते हैं कि माथुर जी ने नागपुर के म्यूज़ियम में नौ -गज की एक साड़ी देखी . इसका वजन मात्र पांच तोला था.  इसे मराठों और हैदरबाद के निज़ाम के बीच 1795 में हुए खुर्दा युद्ध में बन्दी बने एक अज्ञात व्यक्ति ने ग्वालियर क़िले के तहख़ाने में आजीवन कारावास का दंड भुगतते हुए बुना था.  माथुर जी ने ग्वालियर क़िले का वह कक्ष देखा और बाहर-भीतर के अंधेरे, अकेलेपन, घुटन और बेड़ियों में जकड़े उस कलाकार तथा उसकी प्रेमिका की सजीव-साकार कल्पना कर डाली. इसका नायक नरसिंह राव अर्ध-ऐतिहासिक पात्र है. मैंने अपनी पटकथा में यथोचित परिवर्तन किये थे .सबको वह पटकथा अच्छी लगी थी. मेरे नाटक की नायिका को भी . मैं उसका नाम नहीं लूँगा यहाँ . लेकिन इतना तो कह देना चाहिए कि वह ना सिर्फ  सुन्दर थी बल्कि उस नाटक क़ी नायिका का किरदार निभाने के लिए सबसे सही थी.

ऋतू राज :  सुमन ... तुम्हारे नाटक की नायिका थी इसलिए कहते हो तो मान लेते हैं ... अब कहानी की टमटम को आगे बढाओ

जगजीत सिंह :  अब आया कहानी में दम...वर्ना हम तो तहखाने में थे...

ऋतू राज :  जगजीत ... अब कहीं यह मत कह देना ..." सुमन, कहानी छोड़ो नायिका के बारे में ही बताओ" !

जगजीत सिंह :  ले बलैया...इ तो सुमने गायब हो गया..

स्वप्ना शर्मा : लगता है नायिका की फोटो देखने लग गए !

ऋतू राज : जगजीत / स्वप्ना ... अरे, पुरानी बात है याद कर कर के लिख रहा है ... थोडा तो इंतज़ार करो !!!


मैंने ग्रुप में लौट कर कहा : मेरे नाटक की नायिका स्नातक चतुर्थ वर्ष जूलोजी की और मैं बोटनी स्नातक ( प्रतिष्ठा ) चतुर्थ वर्ष का छात्र था.  मैं कई कारणों से लोकप्रिय था अपने सह्पाठिओं के बीच. एक कारण यह  भी था कि मैं अपनी माँ से हर हफ्ते प्राप्त होने वाले चॉकलेट का डब्बा सबको बाँट देता था और मेरा रोल नंबर भी वन था. बहरहाल मेरी एक सहपाठी ने जिसका मेरे दूर के एक रिश्तेदार संग ब्याह हो चुका था  मुझे सलाह दी , " इस नाटक में नायिका के बाल सहलाने जैसे कई अन्तरंग दृश्य है . तुम खुद नायक क्यों नहीं बन जाते. मैं नायिका को राजी कर लूंगी लुंगी " . मरता क्या ना करता , मैं तैयार हो गया . मेरे नाटक की नायिका भी ...

ऋतू राज:  सुमन ... यह आया कहानी में नाटकीय मोड

स्वप्ना शर्मा : अँधा क्या चाहे दो आँख

ऋतू राज : सुमन ... लेकिन दरभंगा बहुत एडवांस जगह थी भाई ... पटना में यदि ऐसा कुछ दृश्य होता कॉलेज के नाटक में तो चाकू - छुरा चल जाता !!!

जगजीत सिंह : छुरा तो अभी भी चल रहा है...सुमन आगे बढ़ो..

ऋतू राज : स्वप्ना ... ठीक कह रही हैं आप ... जवानी हो , उसमें एक नाटक हो, नाटक में एक खूबसूरत नायिका हो और नायक उसके बाल सहलाये ... उफ्फ़ ... इसपर तो एक फिल्म बन जायेगी आज के दिनों में

फिर ऋतू राज ने कहा :  जगजीत ... अभी जो तुम्हारे दिल पर चल रहा है वह छुरा नहीं छुरी है !!!

मैंने किस्सा आगे सुनाया : मेरे एक सहपाठी मिथिलेश ने बड़ी मेहनत से टेप रेकॉर्डर आदि यंत्र से उस नाटक के लिए संगीत तैयार किया . कॉलेज की सारी सहपाठिन अपनी -अपनी कक्षा छोड़ कर नाटक का रिहर्सल देखने गर्ल्स कामन में डेरा जमाने लगी. एक सहपाठिन तो अपनी माँ की मद्रास में बनी वह नौ-गज्जा सिल्क साडी भी ले आई जो नाटक की साडी जैसी लगती थी. मैं खुश था कि नाटक की तैय्यारी देर से सही अब दुरुस्त हो गयी है. सिर्फ एक समस्या थी कि मैं अन्तरंग दृश्यों के रिहर्सल के समय नरभसा जाता था.  नायिका ने यह बात ताड़ ली . मुझसे बोली , " एक -दो बार करोगे तो सही हो जाएगा . सब कुछ सही है , यह भी ठीक होना चाहिए . घबराओ मत मंचन के दिन ही तो असली अभिनय करना है "

स्वप्ना शर्मा : अब इतनी दिलेर लड़कियां भी पटना में कहाँ थीं.

ऋतू राज : सुमन ... यह नाटक तो हिंदी फिल्मों की तरह जुम्बिश खा रहा है भाई .  स्वप्ना ... ना तो ऐसी लडकियां थीं पटना में और ना ही ऐसा उन्मुक्त माहौल था ... मुझे पता होता तो जेएनयू के बदले दरभंगा ही चला जाता पढ़ने के लिए.

रंजन शर्मा : स्वप्ना जी....सुमन का अपना चार्म भी तो हो सकता है.

ऋतू राज :  जिय राजा ... दोस्त हो तो ऐसा

मैंने किस्सा बढाकर कर सुनाया : मेरे नाटक के रिहर्सल क़ी बात अन्य कॉलेज के छात्र -छात्राओं के बीच तो क्या उस छोटे शहर में जगह-जगह तेजी से फैलने लगी . सब ' रस ' ले रहे थे. उस जमाने के गॉसिप के चलते-फिरते सेटेलाईट , मेरे कॉलेज के उन साइकिल सवार छोकरों से , जो कभी गर्ल्स कामन रूम झाँक भी ना पाए थे . मुझे क्या पता कि मेरे नाटक ही नहीं मेरे सर पर ख़तरा मंडरा रहा है...

 ऋतू राज : सुमन ... कहानी अब बिहार के धरातल की ओर उन्मुख हो रही है ..

 शैल झा : सुमन 75 से 77  तक मैं भी वहाँ का छात्र था. अब निर्देशक, लेखक, नायक का परिचय दे ही दिया है तो नायिका का नाम भी बता दें. उस ज़माने की बहुत सी बातें भूल रहा हूँ.

जगजीत सिंह : सुमन..तनी हचका बचाके...रिहर्सल जारी रहे..

मैंने कहा , "  नाटक के मंचन की शाम आ गयी. सभी छात्र -छात्राएं सज-धज कर कॉलेज पहुँच गए . पहला कार्यक्रम एक कत्थक नृत्य था जो मेरी सहपाठिन ने पेश किया . शैल आ गए हैं यहाँ . इसलिए उसका नाम बता देता हूँ . वह दरभंगा के एक सिनेमाघर के मालिक की सुपुत्री थीं जिनका विवाह बाद में मेरे ही दूर के रिश्तेदार से हुआ . नृत्य के बाद आधा घंटे के कुछेक आइटम थे और फिर था हमारा नाटक . नाटक के मंचन के लिए हम सब मंच के पीछे के ग्रीन रूम में जमा हो गए. तभी मिथिलेश ने मेरे कान में कहा , " लगता है तुम्हारी नायिका नहीं आएगी , अब क्या करना है ? "

ऋतू राज : शैल ... अब यह मत पूछो ... हंगामा हो जाएगा !!!

और फिर तुरंत ही ऋतू राज बोले  : सुमन ... हैं, यह क्या ... लास्ट मिनट ब्लूज ??? साथियों ... यह सुमन भी ना ... मैथिलवाद करता है ... शैल आया तो चट से नाम बता दिया ... हमलोगों को कह रहा था कि नाम नहीं बताऊँगा !!!

शैल झा : रंजन भाई , कुमुद सिंह को भले ही अफ़सोस हो कि गोल मार्केट के बदले वहाँ सी.एम.कालेज खुल गया . मुझे इसका कोई अफ़सोस नहीं. उत्तर बिहार में लंगट सिंह कॉलेज मुजफ्फरपुर और सी एम कॉलेज दरभंगा का बहुत योगदान रहा है.

 जगजीत सिंह : शायद सुमन ने कत्थक कलाकार का नाम बताया है...

शैल झा : सुमन पहचान गया.

जगजीत सिंह : शैल भी न...कहाँ नाटक के बीच में कॉलेज ले आये...अरे भाई जरा रुकिए... मामला संगीन हो रहा है...

शैल झा : चलिए जगजीत लौट चलते हैं

जगजीत सिंह : जाने कहाँ गए वो दिन...... आ ई सुमन भी ..पलीता लगा के गायब...

शैल झा : एक बात है भाइयों, सुमन कहानी सुनाना जानते हैं, कैसा सस्पेंस पैदा किया है हमारे कथाकार ने .....

ऋतू राज : शैल ... ठीक कह रहे हो तुम ... और क्लाईमैक्स तो अभी बाकिये है !!!

जगजीत सिंह : सुमना रे मोरे कता गेला

मैं कोई काम निपटा ग्रुप में वापस आकर फिर आगे सुनाने लगा :  मिथिलेश से बोला  , " क्यों क्या हुआ?  उसकी तबियत खराब हो गयी क्या ? ऐसा है तो स्थगित कर देंगे नाटक आज. कुछ दिन बाद कर लेंगे " . वह बोला , " उसकी तबियत बिलकुल ठीक है. वह नाटक खेलने आना भी चाहती है. मैं उसके घर का चक्कर लगाने गया था. लेकिन उसके बाप ने रोक दिया है.  अपने प्रिंसिपल को भी फ़ोन करे शायद.  नायिका की माँ से कह रहा था कि कॉलेज का एक लड़का है , भोली-भाली लड़कियों को भड़का रहा है , गर्ल्स कामन रूम में रिहर्सल के बहाने लड़कियों के बाल सहलाता है, नाटक के दिन पता नहीं और क्या करे " .

बहरहाल , मेरे नाटक की नायिका वह नाटक खेलने नहीं आ सकी . सबका दिल टूट गया . दरभंगा से जेएनयू पहुँचने के पहले उस अनखेले नाटक की नायिका से मेरी आखरी मुलाक़ात हुई .मैंने उसे कहा , " छोटे शहर में यही सब होता है ". उसने कुछ नहीं कहा और मुस्कुरा कर वहां से चल दी " ...

शैल झा : भाई थोड़ा बाज़ार करने जाना है. हालत सांप छुछुन्दरवाली. गए तो कहानी छूटा.  न गए तो बीबी अपनी कहानी सुनाएगी जो इतना रोचक न होगा.

ऋतू राज : सुमन ... उफ्फ़ !! आँखें नम हो गयीं ... लेकिन तुम पिटे नहीं यह सुकून भी हुआ !!! शैल ... अब जाओ ठाठ से ... चिंता नहीं ... नाटक हुआ नहीं ... नायिका बाद में बस मुस्कुरा के चल दी और सुमन अपने टूटे हुए नाटक और दिल के साथ जेएनयू चला आया ... उसके बाद जो हुआ वह तुम मुझसे बेहतर जानते हो !!!

जगजीत सिंह : हाँ...अब चला मैं भी स्नान ध्यान करने...फिर एक मीटिंग में जाना है...

शैल झा : ये तो त्रासद अंत हुआ. ऐसा ही परती परिकथा में नाटककार प्रेम कुमार दीवाना के संग हुआ था. आधे घंटे में लौटा . अगर आप लोग हुए तो दो बातें और कर लेंगे.

ऋतू राज : सुमन ... लेकिन सोचो अगर कहीं वह नाटक मंचित हो ही जाता ... और तुम नायिका के बाल पूरी सभा में सहला ही देते ... तो क्या फिर जेएनयू जा पाते तुम ??? शायद नहीं ... सो चलो एक तरह से अच्छा ही हुआ. सुमन ... अच्छा चलो ... अब एक बात बताओ ... नाटक के रिहर्सल के दौरान अपने कांपते हाथों से तुमने उस खूबसूरत नायिका के बाल कितनी बार सहलाये थे ??

मैंने कहा : जगजीत ने सही अवलोकन किया . मैंने कत्थक नृत्य पेश करने वाली अपनी सहपाठी की पहचान  शैल को देख जरूर की . लेकिन उस अमंचित नाटक की नायिका का किरदार निभाने के लिए चयनित अपनी सहपाठी का नाम नहीं लिया है . उसका नाम लेना सही नहीं होगा . पूरे प्रकरण में उसका कोई दोष नहीं.....

ऋतू राज : सुमन ... दोष तो किसी का नहीं ... बस व्यवस्था का था ... सुमन ... तुम्हारे आखिरी कमेन्ट को दुबारा पढ़ा तो पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि तुम मिथ्यावचन कर रहे हो ...

मैंने कहा : इस वाकये के बाद भी मेरा नाटकों से लगाव बना रहा . जेएनयू के दिनों में भी मैंने नाटक खेले . एक नाटक , " औरत " में मैंने शराबी नायक की भूमिका निभाई थी और हमने दिल्ली में एम्स में हुई अखिल भारतीय स्पर्धा में उस नाटक का मंचन कर प्रथम पुरस्कार भी जीता था .जेएनयू की सोन्या गुप्ता उस नाटक की निदेशक थीं. उसके अन्य कलाकारों में जेएनयू की ही ज्योति , बंदना बबलानी , हेमंत अधलखा आदि शामिल थे. उस नाटक के गंगा हॉस्टल और झेलम लान में हुए रिहर्सल के भी किस्से हैं जो फिर कभी . लेकिन रिहर्सल देखने आये दिवंगत सफ़दर हाशमी ने मेरे बिहार-सुलभ उच्चारण दोष को ठीक करने में ये कह कर बड़ी मदद की थी , " जेएनयू से बाहर यह नाटक खेलने जाने से पहले औरत सही बोलना सीख लो ". मैं तब तक "औरत " को " औड़त 'बोलता था .....

ऋतू राज : सुमन ... अड़े अड़े ...

मैंने कहा : नहीं ऋतू भाई , वैसे भी मैं आम तौर पर झूठ नहीं बोलता. इस किस्से में कुछ भी मनगढ़ंत नहीं है . तीन दशक बाद मैंने इस प्रकरण को याद किया . उस याद की कसम, मैंने " मिथ्यावचन " नहीं किया...

रंजन शर्मा : विद्या कसम खायिए .

मैंने कहा : उसका नाम विद्या .........नहीं था.

आनंद दुबे : जानकारी के लिए आपका धन्यवाद

मैंने कहा : पता नहीं क्यों और कैसे ? आज यह 'किस्सा ' बयां " करने के बाद एक टीस सी हुई मन में.  झूट नहीं बोलूंगा दिल रोने को आया.  कुछ कण्ट्रोल किया. लेकिन आँखें तो नम हो ही गयीं.  पहला -पहला .......क्या आखरी क्या ....कंही कुछ भी तो नहीं था. तो क्यों आँखे नम हो गयीं ? खुद से खुद ने पूछा और फिर कह भी दिया , " क्यों याद करते हो ये सब , किसे सुनाते हो यह सब , और किसलिए, जब तुम्हारी 'दुल्हन ' भी नहीं यहाँ सुनने के लिए.  सो एक बात सबको बोलता हूँ निजता बड़ी चीज है.  हाँ , जो सुना दिया तो सुना दिया सबको , लेकिन आगे आपबीती " सब कुछ " सुना ही दूं , अपनों को ही सही , यहाँ या कंही और , शायद यह सही नहीं. कुछ तो साथ बचे सिर्फ और सिर्फ अपनी यादों  के लिए ........

उनिता सच्चिदानंद : चन्द्र तुम बहुत अच्छे कहानीकार हो !!


2 comments:

#cp_blog said...

On the same post in that closed group I posted a message from Dr. Mithilesh Kumar Jha , named above , and my reply to that :
QUOTE " people should try to practice willing suspennsion of disbelief in order to enjoy these kissey which Suman has so eloquently portrayed.he has remembered with utmost accuracy the entire episode though am not sure whether it was roll no-6 or some one else and am not sure about 'naaiyka khoobsoort thee' part.she was desirble yes beautiful afraid not.ek baat aur Suman batana bhool gya hai,rehersal key baad uskey haath kamptey rahtey theay lekin hoton par ek vijai muskan rahtee thee aur ek gana gunata tha hum hongey kaamyaab ek din.Poot key paon paleney mey najar aa gaye theay. mithilesh " UNQUOTE

Reply to that message : " Thank you Mithilesh - for your 'feedback'- the first one. Had sent it to Dr. Pranav and Himanshu also but dropped the idea to send it to Vijay - the banker , a recent entity on FB. There are certain 'exciting ' info about future prospects of this KISSA which I am sure you all will love. But I am waiting to do that as absorbing as possible in due course which may lack 'clinical precision ' on other dimensions - like beauty of the NAAYIKA , as rightly questioned by you. Thanks again

#cp_blog said...

' सुमन के किस्से' के संग्रह को पुस्तक रूप देने का समय हाथ से फिसलता जा रहा है. इस किस्सा को सार्वजनिक कर उसे पुस्तक प्रकाशन के पहले यथोचित सम्पादित करने का यह शायद आखरी अवसर है.