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Friday, September 18, 2015

संगठन की बुनियादी इकाई का सर्वनाम है परिवार

हाशिया के किस्से : 014

 

संगठन की बुनियादी इकाई का सर्वनाम है परिवार


मुझे लगता था कि मेरी पत्नी अपनी वैचारिक परिपक्वता में कमी को खुद को व्यावहारिक बता कर छुपा लेती है .मुझे उसके मुकाबले  अपनी अपेक्षाकृत अधिक वैचारिक परिपक्वता पर गुमान था.यह हम दोनो के द्वंद्व का बड़ा कारण रहा. मैं तो अक्सर यहाँ तक कह देता था कि हाँ , पति पत्नी के बीच भी वर्ग युद्ध संभव है. सोचता था मेरी पत्नी क्या जाने कि वर्ग युद्ध क्या है .मैं उसे और उसके मूल परिवार को उच्च  वर्ग का तो नहीं , हाँ उच्च मध्यम वर्ग का और खुद को निम्न वर्ग का तो नहीं निम्न मध्यम वर्ग का मानता था .

यह भी सच है कि तमाम आपत्ति के बावजूद मेरी पत्नी ने अपने अंदाज से मेरा लगभग सभी नए संगठन बनाने और चलाने में साथ भी दिया.

ऐसा ही एक संगठन लखनऊ में 1990 के पूर्वार्ध में बना पीपुल्स मीडिया जिसकी वह औपचारिक सदस्य नहीं थी. मैंने उत्तर प्रदेश के मीडिया कर्मिओं के बीच पीपुल्स मीडिया की और से इन्टरनेट प्रशिक्षण के लिए विंटर वर्कशॉप नाम से एक कार्यशाला अपने घर पर चलाने की ठानी. उस कार्यशाला के संचालन में मदद के लिए जेएनयू के पूर्व छात्र और वरिष्ठ कवि असद जैदी के माध्यम से कनाडा की  एक संस्था सेरास - अल्टरनेटिव से मुझे मेरी व्यक्तिगत हैसियत में एक लाख रुपये मिले थे. यह बात मैंने किसी से नहीं छुपाई.

कार्यशाला की घोषणा के लिए लखनऊ में नए बने ताज होटल में अपटेक कम्पनी के सौजन्य से एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की गयी . प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करने उस कम्पनी के प्रबंध निदेशक प्रमोद खेरा और मेरे अलावा कनाडा से हमारे संगठन के सदस्यों को प्रशिक्षण देने आई एक छात्रा टीना एडन और संध्या भी  मौजूद थी.

कार्यशाला के आरम्भ के लिए मैंने जो दिन तय किया था वह मेरा जन्म  दिन था. मेरी पत्नी को मेरे अपने जन्मदिन पर कार्यशाला आरम्भ करने पर घोर आपति थी. लेकिन मुझे लगा इसमें कुछ भी गलत नहीं है. इस अवसर पर मैंने संयोग से तब लखनऊ में मौजूद अनिल चोधरी समेत कुछ अन्य मित्रों को भी बुलाया था. उनके लिए आचमन की व्यवस्था भी की थी. लेकिन पत्नी जी ने रंग में ऐसा भंग डाला क़ि सभी मित्र भाग गए. मुझे बहुत बुरा लगा लेकिन क्या करता वह घर उसके पिता का था जहाँ क्या हो ना हो इस पर मेरा कोई जोर नहीं चल सकता था.

जल्द ही पत्नी जी मेरी पीड़ा समझ गयी और उसने अगले दिन ही अपने कार्यालय से अवकाश लेकर कार्यशाला चलाने में पूरा साथ दिया. मुझे बहुत अच्छा लगा .यह भी समझ में आ गया क़ि पत्नी के सहयोग के बिना मैं घर के भीतर संगठन चलाना तो क्या कुछ भी नहीं कर सकता और अगर उसका सहयोग मिले तो घर के बाहर भी कुछ भी कर सकता हूँ .

कुछ संगठन या मंच ऐसे भी रहे जिसमें हम पति-पत्नी दोनो शरीक थे .उनमें जेएनयू में पढाई के दौरान छात्र संगठन- एसअफआई , एक साहित्यिक समूह - कथ्य , जनवादी लेखक संघ और लखनऊ में बना संगठन - जेएनयू पीपुल शामिल थे.

जब हम जेएनयू में थे तो अभय सिन्हा और अन्य क़ी पहल पर जेएनयू के छात्त्त्रों का एक मंच बना था.  इसके  शुरुआती दौर में मैं भी शामिल था. उस मंच से जुडाव के दौरान ही मैंने और संध्या ने विवाह करने का निर्णय किया था. बाद में कुछ ब्याक्तिगत कारण से मैं उस मंच से अलग हो गया.  मंच क़ी और से कथ्य नाम क़ी एक त्रैमासिक हिंदी पत्रिका प्रकाशित हुई थी. लेकिन उसका एक ही अंक निकला. उस पत्रिका के संपादक मंडल में  मनमोहन, असद जैदी , नागेश्वर यादव , शुभा , आभा दयाल , अमित सिन्हा , अजय ब्रह्मात्मज भी थे . संध्या भी सम्पादक मंडल में  थी और उसे व्यवस्थापक और पत्राचार की अतिरिक्त जिम्मेवारी सौंपी गयी थी. कथ्य के कार्यालय को चलाने का अनौपचारिक भार मेरे ऊपर था. मैं जेएनयू के जिस पुराने नर्मदा हॉस्टल में रहता था उसके वार्डेन और साहित्यानुरागी स्पेनिश अपराजित चटर्जी ने मेरे अनुरोध पर एक ऐसे खाली पड़े कमरे को कथ्य के कार्यालय के रूप में उपयोग करने की अनुमति दे दी जो छात्रों के किसी उपयोग में नहीं था. मैंने और संध्या ने साथ कई देशों के दूतावास के चक्कर लगा कर उनकी साहित्यिक पत्रिकाएं हासिल की.

कथ्य का प्रयोग क्यों असफल हुआ इसके बारे में सभी के अलग-अलग विचार थे. मेरा मानना यह था कि यह प्रयोग संपादक अभय सिन्हा और असद जैदी के द्वंद्व के कारण नहीं चल पाया और इसको इंगित करने के लिए मैंने कथ्य के कार्यालय में किसी पत्रिका से निकला एक कार्टून  लगा दिया था जिसमे आपसी झगड़े से मर्माहत अवस्था में पंखे से लटके व्यक्ति को मनमोहन जी का नाम दे दिया था.

जेएनयू पीपुल लखनऊ में रह रहे जेएनयू के पूर्व छात्रों का बनाया संगठन था .संध्या इसके नेतृत्व करने वालों में थी. उस संगठन की हमारे या किसी अन्य के घर पर खान-पान के साथ बैठकें हुईं और कुछ नहीं . घर के बहार उस संगठन का एकमात्र कार्य यही हुआ था कि उसके करीब 30 सदस्य लखनऊ में राजभवन जाकर तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन से मिले थे. वह कभी जेएनयू के कुलपति रहे थे .जेएनयू पीपुल का अध्यक्ष अशफाक खान को बनाया गया था जो जेएनयू में अध्यापन कार्य से अवकाश लेकर लखनऊ में रहने लगे थे. संगठन की संयोजक पत्रकार -लेखक वंदना मिश्र और सह संयोजक संध्या थी.

जेएनयू पीपुल संगठन में मेरी कोई नेतृत्वा कारी भूमिका नहीं थी .लेकिन राष्ट्रपति के आर नारायणन को संगठन की और से सोंपे एक ज्ञापन का प्रारूप मैंने ही तैयार किया था. ज्ञापन में केंद्र में सांझा सरकार के प्रारंभ दौर को इंगित कर यह कहा गया था क़ि ऐसे में उनके राष्ट्रपति बनने से देश के लोग सुरक्षित महसूस कर रहे हैं.

संगठन को चलाने में भारतीय पुलिस सेवा के तब लखनऊ में तैनात अधिकारी शम्भूनाथ सिंह और पायनियर-स्वतंत्र के संपादक रहे जेएनयू के उदय सिन्हा और अंजना प्रकाश का काफी सहयोग मिला था. समाज़वादी पार्टी के विधायक रहे शतरुद्र प्रकाश  से ब्याही अंजना प्रकाश  जेएनयू के प्रोफ़ेसर आनंद कुमार की छोटी बहन भी है .लेकिन यह  संगठन  तय ही नहीं कर पाया क़ि वह करे तो क्या करे .हमारे लखनऊ छोड़ने के बाद यह संगठन भी बिखर गया.

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