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Wednesday, September 16, 2015

संगठन बहुत हैं , सुसंगठित कहाँ !

हाशिया  के किस्से : 013



संगठन बहुत हैं , सुसंगठित कहाँ !

शहीदे-आज़म भगत सिंह ने यूं ही नहीं कहा था कि ' फांसी पर चढ़ना आसान है , संगठन बनाना और चलाना आसान नहीं ' .

अपने जीवन के पूर्वार्ध में पचासों संगठनों से जुडाव के अनुभव को लिखना जरुरी लग रहा है. मुझे लगता है क़ि समाज पर हावी होते बाज़ार के मौजूदा दौर में जब हम बहुत सारे लोग लगातार आत्मकेन्दित होते जा रहें हैं , हमारे पारस्परिक , सामजिक और आर्थिक-राजनितिक सम्बन्ध का भी पुराना ढांचा टूट रहा है और नए ढांचा को लेकर संशय है तो हमें इसकी पड़ताल करनी चाहिए क़ि संगठन बनाने और चलाने में क्या गड़बड़ होती रही है. स्टालिन के बाद शायद किसी ने संगठन के बारे में युक्तिसंगत नहीं लिखा.

मेरी पत्नी अक्सर उपहास में कहा करती थी , " तुम हर नए शहर में नए नाम के साथ नया संगठन बना लेते हो " . उन्होंने जेएनयू में हमारे बनाये मंच ' कथ्य ' का हश्र देखा था - जिसका मैंने अपने हॉस्टल के खाली पड़े एक कक्ष में हॉस्टल वार्डन और साहित्यानुरागी स्पेनिश  प्रोफ़ेसर अपराजित चट्टोपाध्याय की सहमति से कामचलाऊ कार्यालय तक बना दिया था.

और फिर उन्हें  ' दिल्ली यूनियन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स ' को नए सिरे से संगठित करने के बाद उसे चलाने में  हम कर्ता -धर्ताओं की आपसी खींचतान की भी पूरी खबर थी. इस संगठन का भी कार्यालय मैंने प्रेस इंफोर्मेशन ब्यूरो के सामने सांसदों के एक बंगले के सर्वेन्ट्स क्वार्टर में खोल वहाँ वो टाइपराइटर ' दान ' कर दी थी जो हमारे घर में थी. वो शायद मेरी पत्नी की नानी ने उनके पिता को उपहार स्वरुप दी थी. लखनऊ शिफ्ट कर जाने पर वह कहतीं भी थीं , '  तुम मेरे लिए नहीं डीयूडब्लूजे के झगड़ों से तंग आकर दिल्ली से बाहर निकले .कुछ संगठन या मंच ऐसे भी रहे जिनमें हम दोनो शरीक थे .उनमें से भी ज्यादातर का हमारे शहर बदल जाने या अन्य कारण से वही हश्र हुआ.

उन्हें मेरे द्वारा गठित या पुनर्गठित संगठनों के परिणाम का पूर्वानुमान होता था. वह मुझसे कभी कारण नहीं पूछती थी नया संगठन बनाने का. मैं उनकी आपति के बावजूद यह मानता था कि किसी भी क्षेत्र में बेहतरी के लिए संगठित हस्तक्षेप आवश्यक है और मुझे इसमें हाथ बटाना चाहिए .मेरा यह भी मानना था कि जितने भी संगठन बने उतना ही अच्छा है.

लखनऊ में भी मैंने औरोँ संग कई संगठन बनाये , मीडिया मंच , पीपुल्स मीडिया , जेएनयू पीपुल और मानवाधिकार संयुक्त संघर्ष समिति ( मानस ) भी. मानस का दफ्तर लखनऊ कॉफी हाऊस के ऊपर खोला गया जहां मैंने अपने बोनस से मिले पैसों से खरीदी स्टील की अलमारी पहुंचा दी थी. मानस की बागडोर सी.बी.सिंह को सौपी गयी थी. चंडीगढ़ अकेली ऐसी जगह थी जहां रहते हुए भी मैंने कोई नया संगठन नहीं  बनाया. शायद वहां की जमीन मेरे किसी नए संगठन के लिए बंजर थी.

मैंने ' आखरी ' संगठन मुंबई में अपने कुछ ऐसे पत्रकार साथियों के साथ मिल कर बनाया जो वितीय और वाणिज्यिक पत्रकारिता करते थे. उसका बाकायदा एक न्यास के रूप में पंजीकरण कराया गया और मुझे उसके संस्थापक महासचिव पद की बागडोर सौप दी गयी .यह संगठन तीसरी सहस्त्राब्दी के आरम्भ में वैश्विक आर्थिक मंदी के प्रादुर्भाव से ऐन पहले बना. नाम रखा गया ' इंडियन बिज़नस जर्नलिस्ट्स असोसिएशन ' ( ईब्ज़ा ).  इसके अध्यक्ष बने रोमेल रोड्रिग्स जिन्होंने बाद में  " कसाब : द फेस ऑफ़ 26 /11 "  नाम से पेंगुइन से प्रकाशित पुस्तक लिखी। संगठन चलाने में उनसे गहरे मतभेद हो जाने पर मैंने ईब्जा महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया और वह संगठन भी बिखर गया. मैं चाहता था कि ये संगठन पाठकों के लिए वित्त -वाणिज्य के सेंसेक्स आदि का तिलिस्म तोड़े और उनकी आस्था बाज़ार के सिस्टम में थी . रोमेल अब संगठन  नहीं , फिल्म बनाते हैं.

मैं जिन संगठनों से जुड़ा रहा उनमें से बाबरी मस्जिद विध्वंश के बाद लखनऊ में बने एक संगठन  , साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान का विस्तार से जिक्र करने में गुरेज नहीं .इस संगठन का स्थापना-सम्मलेन अमीनाबाद क़ी उसी धर्मशाला में हुआ था जहाँ 1930  के दशक में प्रेमचंद संग संग मिल बहुतों  ने प्रगतिशील लेखक संघ क़ी बुनियाद रखी थी .

साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान का गठन कुछ एनजीओ द्वारा किया गया था जिनमे जेएनयू के छात्र नेता रहे अनिल चौधरी का एनजीओ , पीस भी शामिल था. सम्मलेन के आयोजकों ने मुझे उसमें नागरिक के बतौर नहीं बल्कि अख़बारों में प्रचार के लिए एक पत्रकार के रूप में बुलाया होगा जिसे मैं जल्द ताड़ नहीं पाया.अनिल पुराने मित्र हैं और उन्होंने ताकीद कर रखी थी क़ि मुझे इसको सफल बनाने में अपना सहयोग देना है. मैं तब लखनऊ में पत्रकारों और पाठकों के बने एक जुझारू संगठन मीडिया मंच का संयोजक चुना जा चुका था और मेरी क्षवि  एक्टिविस्ट-जर्नलिस्ट  के रूप में बुलंद हो चुकी थी.

तब उत्तर प्रदेश का ही नहीं पूरे देश का माहौल ऐसा था कि साम्प्रदायिकता के विरोध में उठने वाली हर आवाज का  मुझे देश के संविधान के अनुरूप एक नागरिक ही नहीं पत्रकार के रूप में भी साथ देना जरुरी लग रहा था. अयोध्या में एक पत्रकार के बतौर 1992  के मध्य से अंत तक रुक-रुक कर कई माह  रहने और फिर बाबरी मस्जिद विध्वंष के बाद जब मैं लखनऊ लौटा तो लगा लोग सहमे हुए हैं और उन्हें डराए रखने के लिए अजीब खेल खेले जा रहे हैं. मैंने लखनऊ में सीतापुर रोड पर कुछ बड़े बच्चों को एक ऐसा खेल खेलते देखा था जिसमें वे दो समूह में बंट कर ईटों से मस्जिद-मंदिर  बनाने और गिराने के खेल का मजा ले रहे थे.

ऐसे में मुझे दिल्ली के पुराने मित्र और वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरुप वर्मा क़ी पहल पर बहुत सारे पत्रकारों और अन्य नागरिकों का लखनऊ आकर साम्प्रदायिकता के संगठित विरोध में एक मार्च निकालना सही लगा. उनमे दिवंगत पत्रकार एसपी सिंह भी थे. उस मार्च में सबसे ज्यादा नारे मैंने ही लगाये . इन नारों में से एक यह भी था " साम्प्रदायिकता क़ी कब्र खुदेगी उत्तर प्रदेश क़ी धरती पर "  यह नारा सुन एसपी सिंह ने लखनऊ के एक पत्रकार-मित्र और दलित चिंतक ब्रिज बिहारी से मेरे बारे में पूछा था . जो बात एसपीसिंह को नहीं बताई जा सकी वह यह थी कि मैंने यह नारा बहुत पहले दिल्ली में चाणक्यपुरी में अमरीकी दूतावास के सामने निकले मार्च में जसविंदर सिंह के लगाये उस नारे से प्रेरित होकर लगाया था - ' साम्राज्यवाद क़ि कब्र खुदेगी अल सल्वाडोर की  धरती पर'  . जसविंदर सिंह मित्र थे , जेएनयू से निकल कर पत्रकार हो गए थे, दिनमान और बीबीसी रेडियो की हिंदी सेवा में रहे थे और पता नहीं कैसे गोवा में समुन्दर किनारे आचमन करते-करते उनकी मौत हो गयी थी.

ये नारे खोखले तो नहीं लगते लेकिन साम्राज्य्वादी वैश्वीकरण के युग में विश्वसनीय सांगठनिक हस्तक्षेप के   अभाव में मुझे उनके आसनी से चरितार्थ होने  में संशय होने लगा. साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान के  स्थापना सम्मलेन में असगर वजाहत का खड़ा किया यह सवाल मुझे गौरतलब लगा क़ि पिछली आधी सदी में लोगों ने साम्प्रदायिकता का जिस रूप में जितना विरोध किया वह उतनी ही आगे बढ़ी है.

मैंने उस सम्मलेन में पूरी शिद्दत से शिरकत क़ी थी.  बाद में लखनऊ के रॉयल होटल में सहारनपुर के  तब के विधायक संजय गर्ग को आवंटित सरकारी आवास के एक हिस्से में जब साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान का कार्यालय खुला और उस नाम से वहां एक बोर्ड लग गया तो मैंने समझ लिया क़ि जबतक यह बोर्ड है तब तक साम्प्रदायिकता के टिकने क़ि गारंटी जरुर है

उस संगठन को चलाने के लिए उसके पीछे मौजूद एनजीओ से धन मिलने लगा था. एक वेतनधारी संयोजक नियुक्त हो गए थे .फिर भी मेरा उस संगठन से जुडाव बना रहा .जब 1998   के लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो मैंने ये सुझाव दिया क़ि हमें , सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों पर जनता की और से दबाब डालना चाहिए क़ि वे उत्तर प्रदेश के कम-से-कम चार लोकसभा सीटों पर सांझा उम्मेदवार खड़ा करें ताकि धर्मनिरपेक्षता के प्रति एक माहौल बनाने में मदद मिल सके . मैंने इन चार सीट के रूप में मथुरा , वाराणसी और अयोध्या को समाहित करने वाली फैजाबाद के अलावा लखनऊ लोकसभा सीट का भी नाम लिया .

 कई साथियों ने मेरे सुझाव को पसंद कर इस सीमित और प्रतीकात्मक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अधिक से अधिक जन -संगठन के प्रतिनिधियों के साथ बैठक बुलाने का निर्णय किया .सोचा गया क़ि बैठक उत्तर प्रदेश विधानसभा भवन के सामने सीपीएम कार्यालय परिसर के खुले मैदान मैं हो तो अच्छा रहेगा .लेकिन सीपीएम की  उत्तर प्रदेश कमेटी के तत्कालीन सचिव राम सुमेर यादव जी ने आखरी क्षण में वहां बैठक के आयोजन की अनुमति देने से मन कर दिया - यह कह कर क़ि इससे लोगों के बीच उनकी पार्टी की तरफ से गलत सन्देश जा सकता है. राम सुमेर जी बाद में अपनी पार्टी के सिर्फ चार विधायक होने के बाबजूद समाजवादी पार्टी के समर्थन से विधान परिषद् सदस्य बने .

हमारी उस मुहीम से सीपीएम के अंतिम क्षण में छिटक जाने से विवश होकर हमें वह बैठक उस पार्टी के कार्यालय के पास ही तब " कोप भवन"  नाम से मशहूर उस सार्वजनिक जगह पर करनी पड़ी जहाँ आम लोग विधानसभा सत्र के दौरान धरना देते थे और शेष दिनों में ढेर कचरा बिखरा रहता था.  बैठक में वरिष्ठ साहित्यकार मुद्रा राक्षस जी , इप्टा के राकेश , पीयूसीएल के चितरंजन सिंह और नागरिक धर्म समाज की प्रोफ़ेसर  रूपरेखा वर्मा जी भी शामिल हुई जो बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय की कुलपति बनी. हमने एक नए सांझा मंच की ओर से एक और बड़ी बैठक बुलाने के साथ ही लखनऊ में साम्प्रदायिकता के खिलाफ मार्च निकालने और उसमें सभी धर्मनिरपेक्ष दलों को हमारे सुझाव पर अपना रुख साफ़ करने के लिए आमंत्रित करने का निश्चय किया .

बाद की बैठक में कई और संगठन शामिल हुए और मेरे सुझाव पर  आवामी मोर्चा नाम से एक नया सांझा मंच बनाने का निर्णय किया गया. सभी की राय से मुझे आवामी मोर्चा का सयोजक बना दिया गया और साथ ही विभिन्न धर्मनिरपेक्ष दलों के आला नेताओं से सम्पर्क करने की  जिम्मेवारी भी दे दी गयी .

इस बैठक के बारे में मुझसे बात कर टाईम्स ऑफ़ इंडिया के एक रिपोर्टर ने अगले दिन एक बड़ी खबर छाप दी जिससे यह भ्रम फ़ैल गया क़ि लखनऊ की लोकसभा सीट पर अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष दलों के समर्थन से आवामी मोर्चा के संयोजक के रूप में मुझे खड़ा किया जा सकता है.

जिस दिन वह खबर छपी मैं लखनऊ में नहीं , दिल्ली मैं था. दिल्ली में मैंने सीपीएम के नए बने मुख्यालय जाकर प्रकाश कारत से भेंट की जो तब पार्टी के उत्तर प्रदेश प्रभारी थे.  मेरा उनसे जेएनयू के पूर्व छात्र और वाम आन्दोलन समर्थक पत्रकार माने जाने के कारण सहज सम्बन्ध था. उन्होंने कहा , ' कुछ ही देर में पोलितब्यूरो की बैठक होने जा रही है.  बोलो क्या बात है ? " मैंने उन्हें आवामी मोर्चा के गठन तक क़ी सारी बातें संक्षेप में बताने के साथ ही यह भी कहा क़ि समाजवादी पार्टी का तो कुछ नहीं कह सकते लेकिन बहुजन  समाज पार्टी से ऐसे संकेत हैं क़ि अगर लखनऊ सीट के लिए हमारे सुझाया कोई सांझा प्रत्याशी बसपा की टिकट पर चुनाव लड़ना चाहे तो वह समर्थन दे सकती है.

 कामरेड कारत ने मुझसे पूछा , "  कोई नाम बताओ ".  मैंने कहा क़ि प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा के नाम पर अभी सहमति तो नहीं है लेकिन उनके नाम पर विचार किया जा सकता है और शायद सपा उनका समर्थन भी कर दे क्योंकि वो मुलायम सिंह यादव के संपर्क में हैं .कामरेड कारत ने कोई जवाब नहीं दिया और यह कह कर उठ गए क़ि उन्हें तत्काल पोलितब्यूरो की बैठक में जाना है.


लखनऊ में साम्प्रदायिकता के खिलाफ मार्च निकला तो मेरे सुझाव पर उसका नाम ' सेकुलर मार्च ' रखा गया. उसमें शिरकत  के लिए मुंबई से असगर अली इंजीनियर तशरीफ़ लाये थे. सेकुलर मार्च में लखनऊ से समाज़वादी पार्टी के प्रत्याशी -फिल्मकार मुज़फ्फर अली और बहुजन समाज पार्टी के नेता डीपी वोरा भी शामिल हुए .पर कंही किसी लोकसभा सीट  पर कोई साँझा सेकुलर प्रत्याशी नहीं खड़ा किया जा सका. बहुत बाद में लखनऊ में  साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान के कर्ता -धर्ताओं के आपसी मतभेद इतने गहरे हो गए कि उसका कार्यालय बंद कर दिया गया.  साम्प्रदायिकता से लड़ने का बोर्ड  उतर गया. फिर भी सांप्रदायिकता और वेगवती हो गई .

नीचे कुछ तस्वीरों और ख़बरों की अखबारी क्लिपिंग्स हैं - ताकि सनद रहे.
 


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