पुनरावलोकन
काला धन अाये कहां से ? काला धन जाए कहां रे ?
( पींग ( पाक्षिक ) , रोहतक ( हरियाणा ) 16 मई 1985 )
भारतीय अर्थव्यवस्था में काला धन या काली अर्थव्यवस्था का पदार्पण द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुअा. उन दिनों कुछ अावश्यक चीजों की राशनिंग और कंट्रोल की वजह से चीजों में चोरबाजारी की शुरुअात हुई. चोरबाजारी से शुरू हुए इस धंधे ने पहले काला बाज़ार और फिर काली अर्थव्यवस्था का रूप धारण किया. अाज़ादी के बाद इस काली अर्थव्यवस्था का धीरे -धीरे विस्तार होता रहा और जब इसने अाधिकारिक अर्थव्यवस्था की बराबरी प्राप्त कर ली तो अर्थशास्त्रियों ने इसे समानांतर अर्थव्यवस्था का नाम दे दिया.
काली अामदनी , कालाधन , काली अर्थव्यवस्था , भूमिगत अर्थव्यवस्था , गैरकानूनी अर्थव्यवस्था और समानांतर अर्थव्यवस्था जैसे कई नामों वाली इस बीमारी के प्रति जनसाधारण में समझ स्पष्ट नहीं है. जनसाधारण की समझ में काला धन वह धन है जो बक्सों में बँद अथवा सट्टे या गैर कानूनी कार्यों में लगाया जाता है. पर यह तो काले धन का अंशमात्र है. काले धन के बहुत बड़े भाग का उपभोग बैंक जमा सहित वितीय संपत्ति उपलब्ध करने में किया जाता है. कर वंचित अाय की एक विशाल धनराशि बैंकों में जाती है अऊर फिर बैंकों द्वारा सरकार सहित अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में अार्थिक सहायता देने में लगाई जाती है. कानून द्वारा निर्धारित कर देने के बाद बचे पैसे की सीमा से अधिक पैसा , या कर न देकर जमा किया हुअा धन काला धन कहलाता है.
अाज़ादी के बाद इसमें काफी वृद्धि हुई है जिसका कोई हिसाब - किताब या लेखा -जोखा नहीं है. सरकारी अांकड़ों के अनुसार देश का सकल उत्पाद 5 प्रतिषत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। जबकि बैंकों में जमा राशि प्रतिवर्ष 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. इस विरोधाभास का कारण काला धन ही है.
श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने जब 1969 में 14 बड़े व्यापारी बैंको का राष्ट्रीयकरण किया था तो उस समय बैंकों में कुल 4665 करोड़ रुपये ही थे. दिसंबर 1984 तक बैंको में जमा रकम बढ़कर 70 हज़ार करोड़ रुपये हो गई। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में उसके अार्थिक विकास के अनुपात से अगर अधिक रकम जमा हो तो यैह इस बात का सबूत है कि उस देश में कोई समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है.
कालाधन कई तरीकों से बनता है जिनमें करों में चोरी , नाज़ायज़ कमाई , तस्करी और प्रशासनिक भ्रष्टाचार प्रमुख हैं. पर सबसे अधिक कालाधन उत्पादन प्रणाली से ही अाता है और इसी में सबसे अधिक काला धन लगा भी हुअा है. व्यापारियों और उद्योगपतियों का गठजोड़ जिस प्रकार जितना अधिक पैसा जमा करता है उससे कालेधन की मात्रा उतनी ही अधिक बढ़ती है.
हमारे देश में कालाधन क्यों बनता है ? इस संबंध में अर्थशास्त्रियों के बीच मुख्यतः तीन तरह के मत प्रचलित हैं. पहली धारणा के अनुसार जब करों की दर अधिक होती है तो व्यक्ति करों की चोरी करने लगता है जिसके फलस्वरूप कालाधन बनता है. पर डा. के.एन. काबरा जैसे कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि करों की दर में कमी होन से कर वसूली में कोई खास असर नहीं पड़ता बल्कि कर वसूलने वालों को सुविधा ही प्राप्त होती है. उदाहरण के लिए 1971 -72 से 1978 -79 की अवधि में करों की दर में उत्तरोत्तर कमी के बावजूद निम्न अाय सीमा के अनुपात में उपरी अाय सीमा के लॉगऑन द्वारा दिए जाने वाले करों की कुल राशि में वृद्धि नगणय थी.
दूसरे मत के अनुसार कंट्रोल , कोटा , परमिट और लाइसेंस प्रणाली के कारण कुछ वस्तुओं का वितरण सही ढंग से नही हो पाता है. फलस्वरूप इन वस्तुओं की अापूर्तो कम पड जाती है और कालेधन की बनने की जमीन तैयार होती है. पिछले दो दशकों से चीनी , जूट , स्टील , और सीमेंट जैसे उद्योगों के उपर लगाए गए कंट्रोल के कारण कालेधन के बनने की प्रक्रिया में वृद्धि हुई है. अर्थशास्त्र पार् अनुसंधान करने वाले संस्थान ( नेशनल इंस्टिट्यूट अॉफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च ) के हाल ही में किए एक अध्ययन के अनुसार सिर्फ 9 वर्ष में इन वस्तुओं के उपर लगाए गए कंट्रोल ने 844 करोड़ रुपये का काला धन पैदा किया.
वांचू समिति और गाडगिल कमिटी ने भी स्वीकार किया कि कन्ट्रोल , कोटा , और लाइसेंस प्रणाली के कारण प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में कुछ ऐसे अधिकार अा जाते है जिसके फलस्वरूप भ्रष्टाचार बढ़ता है और कालाधन बनता है.
तीसरे मत के अनुसार राष्ट्रीय राजनीति भी काला धन को बढ़ावा देती है. यैह सर्वविदित है कि चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दलों को धन की जरूरत पड़ती है. इसके लिए सियासी पार्टियां , उद्योगपतियों और व्यापारियों द्वारा दिए चंदे पर निर्भर करती हैं. चंदे की बड़ी -बड़ी रकमें कालेधन का ही एक हिस्सा होतीं हैं. राजनीतिक दलों में सत्तारूढ़ दाल को खास तौर पार् चंदा देने वाले व्यापारी और उद्योगपति जानते है कि उनकी काली कमाई के बल पर जीतने वाला दल काले धन के खिलाफ भौंक तो सकता है पर काले डान के रखवालों को काट नहीं सकता है. 1968 में सरकार ने राजनीतिक दलों को व्यापारी वर्ग से मिलने वाले चंदे पर रोक लगा दी थी. इसके बावजूद राजनीतिक दलों को परोक्ष रूप से पूंजीपति वर्ग से चंदे मिलते रहे.
1985 -86 के बजट प्रस्ताव में इस बात का प्रावधान रखा गया कि व्यापारी कर चुकाने के बाद बचे लाभ में से ही राजनीतिक दलों को चंदा दे सकते हैं. यह कोई भी समझ सकता है कि व्यापारी और उद्योगपति इस तरह का चंदा , कर चुकाने के बाद बची हुई अपनी कमाई में से नहीं देंगे. चंदा देने के लिए उनके पास काले धन का प्रबंध रहता है जिसे राजनीतिक दाल सहर्ष स्वीकार करते हैं. इस चंदे के एवज़ में शासक दल से अपेक्षा की जाती है कि कालेधन के खिलाफ कोई कड़ा रुख नहीं अपनाया जाएगा. ऐसा होता भी है. इतना ही नहीं , इस पूंजीपति वर्ग को उनके फायडे के लिए सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की छूट भी दी जाती है.इस बार के बजट में कई चीजों को ओजीएल लिस्ट में शामिल किया जाना सार्वजनिक उद्योगों के लिए सुरक्षित क्षेत्रों में निजी उद्योगों को घुसने की इजाज़त देना इस बात का सबूत है. राजनीतिक दलों और कालाधन रखने वाले पूंजीपति वर्ग के बीच इस प्रकार के मधुर संबंधों के कारण ही अाज की राजनीति का जोर काले धन पर नहीं बल्कि काले धन का राजनीति पर कब्जा हो गया है.
अायकर , बिक्रीकर , उत्पादन कर , सीमा कर अादि से जुड अधिकारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से कर के नियमों का कड़ाई से पालन नहीं हो पाता। इसके फलस्वरूप करों चोरी होती है. थोक , खुदरा एवं उत्पादन स्तर पर कालाधन के बनने की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है.
कालाधन की वृद्धि में सरकार तथा बैंकों की गलत नीतियों ने भी अच्छा खासा योगदान किया है. बैंकों ने भारी पैमाने पार् सावधि -जमा खाते में रकमें जमा की हैं. जमा करने वाला यैह रकम कहां से लाता , बैंक इसकी जांच पड़ताल नहीं करता। सात वर्षों में वह रकम दुगनी ही नहीं हो जाती बल्कि स्याह मुद्रा से सफेद मुद्रा बदल जाती है. सरकार भी समय -समय पर सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों की कंपनियों को करने की छूट देती है. ये कंपनियां , इस जमा धन पर 15 से 18 प्रतिशत तक सालाना ब्याज दे रहीं हैं. इन कंपनियों में भी काला धन ही जमा हो रहा है. जैब ये कंपनियां , जमाकर्ताओं को रकम लौटाएंगी तो वह कालाधन सफेद मुद्रा होकर रहेगी.
काले धन को सफेद धन में बदलने के कई तरीकों में से एक तरीका है - विभिन्न राज्यों और संस्थाओं द्वारा संचालित लाटरी के पुरस्कृत टिकटों को काला धन रखने वालों द्वारा विजेताओं से खरीदा जाना। विजेता अगर खुद रकम प्राप्त करने जाता है तो उसे पुरस्कृत राशि में से ही विभिन्न प्रकार के कर चुकाने पड़ते हैं. पर काला धन रखने वाले इन विजेताओं को पुरस्कृत राशि से भी अधिक रकम देकर टिकट ले लेते हैं। इस तरह उनका काला धन सफेद जाता है.
इस देश में कितना पैसा काला है इसका पता लगाना मुश्किल है. अर्थशास्त्रियों की मान्यता है कि काला धन , सामान्य पैसे की तुलना में दो से ढाई गुना गतिशील होता है. कालेधन की इस गतिशीलता के कारण ही उद्योग, व्यापार , जमीन -जायदाद की खरीद -फरोख्त , फ़िल्म निर्माण , नाज़ायज़ विदेशी मुद्रा की खरीद -बिक्री में और फर्जी नामों में से कितना काला धन कहां पड़ा हुअा है इसकी गिनती बहुत ही मुश्किल है.
इन कठिनाईयों के बाबजूद अर्थशास्त्रियों ने करेंसी नोटों के जीवनकाल और उनकी गतिशीलता , कर चोरी की दर तथा सर्वेक्षण जैसे कई अाधार अपनाकर समय- समय पर काले धन की मात्रा तय करने की कोशिश की है. प्रमुख अर्थशास्त्रियों में से केल्डोर ने 1953 -54 में 600 करोड़ रुपये , वांचू ने 1961 - 62 में 700 करोड़ रुपये , 1963 -64 में 1000 करोड़ रुपये , 1968 -69 में 1400 करोड़ रुपये , रांगनेकर ने 1961 -62 में 1150 करोड़ रुपये , 1963 -64 में 2350 करोड़ रुपये , 1968 -69 में 2833 करोड़ रुपये , 1969 -70 में 3080 करोड़ रुपये , गुप्ता और गुप्ता ने 1968 -69 में 4504 करोड़ रुपये , 1969 -70 में 5458 करोड़ रुपये , 1977 -78 में 34335 करोड़ रुपये , 1978 -79 में 46866 करोड़ रुपये , ली अमिल ने 1978 -79 में 12163 करोड़ रुपये और एन. एस. प्रसाद ने 1978 -79 में 12611 करोड़ रुपये का कालाधन होने का अनुमान लगाया था। एक फौरी अनुमान के तहत 1983 -84 में 508277 करोड़ रुपये का संचित काला धन था.
अाज़ादी के बाद से अब तक सरकार ने काले धन पर रोक लगाने के कई तरीके अपनाए हैं. बिना अाय कर दिए एकत्र किए गए पैसों पर छापा औऱ नए करदाताओं का पता लगाना एक तरीका है. दूसरा तरीका है कालेधन की स्वैक्छिक घोषणा करवाना. अापातकाल के दौरान 1976 में सरकार ने घोषणा की , कि जो लाग स्वेक्षा से अपने काले धन की घोषणा कर देंगे उन्हें दंडित नहीं किया जाएगा. ऐसा करने वालों को कुछ छूट भी दी गई. लेकिन इस उपाय से मात्र 1500 करोड़ रुपये के कालेधन की ही घोषणा हो पाई.
जनता सरकार ने 1977 में कालेधन को समाप्त करने के लिए एक हज़ार रुपये के करेंसी नोटों का प्रचलन बंद कर दिया. लेकिन इस उपाय का भी असर ज्यादा नहीं हुअा और सिर्फ 790 करोड़ रुपये का ही काला धन बाहर अा सका.
1980 में इंदिरा गांधी की सरकार ने ' विशेष धारक बांड ' चलाई। इस बांड को खरीदने वालों के खिलाफ न सिर्फ कानूनी कार्रवाई न करने का अाश्वासन दिया गया बल्कि 10 साल बाद दो फीसदी के हिसाब से सूद समेत सफेद पैसा लौटाने का भी वादा किया गया. इस उदार कदम के बावजूद सिर्फ 963 करोड़ रुपया ही बाहर अा सका जो कालेधन के महासागर का चुल्लू भर ही था.
दरसल शासक वर्ग औऱ उसके अपने अर्थशास्त्रियों ने काले धन को मिटाने या हटाने की अाज तक जो भी योजना पेश की है उससे कालेधन के पैदा होन में कोई रोक नहीं लगी है बल्कि स्याह को सफेद करने में मदद ही मिली है.स्याह से सफेद बने इस धन की ताकत औऱ भी ज्यादा होती है.
कालेधन ने समाज में एक ऐसे संस्कृतिविहीन नवधनिक वर्ग को भी जन्म दिया है जो नैतिक मूल्यों की छीछालेदारी करने की प्रक्रिया में एक प्रमुख घटक है. इस वर्ग ने काले पैसे के बल पर राजनीति में घुसपैठ की और समाज के अार्थिक , राजनीतिक -सामाजिक जीवन को प्रदुषित कर दिया.
काला धन पर नियंत्रण लगाना वर्तमान परिस्थतियों में भी संभव है. लेकिन यह देखा गया है जब कभी सरकार ने कालेधन रखने वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाने का फैसला किया तो कालेधन के दबाव में सरकार पीछे हट गई। सरकार ने कभी भी इस समस्या को ईमानदारी से हल नहीं करना चाहा. सरकार ऐसा कर भी नहीं सकती। क्योंकि कालेधन का चुनाव में प्रयोग होता है औऱ उसका सबसे अधिक फयदा सत्तारूढ़ दाल ही उठाता है.
प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने हाल के विधान सभा चुनावों से पहले काला धन को समाप्त करने का जो वादा किया था वह उनकी सरकार के इस साल की अार्थिक जरूरत , बजट , के बाद औऱ कुछ नहीं चुनावी स्टंट ही साबित हुअा. अब शायद जनता से यह अाशा की जा रही है कि वह प्रधानमंत्री का कहा सुना भूल जाए.
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