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Sunday, August 30, 2015

एक थे 'भैया' , एक था ' मेमो '

हाशिया के पत्र :

एक थे 'भैया' , एक था ' मेमो '

दिनांक 20 जनवरी , 1995

शुक्रवार को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री राजेन्द्र सिंह के संवाददाता सम्मलेन का समाचार आपने दिया था जिसमें संघ द्वारा श्री नारायण दत्त तिवारी को समर्थन देने की बात कही गयी थी.श्री राजेन्द्र सिंह ने उक्त समाचार का खंडन किया है तथा इस तरह का दुर्भावना प्रेरित तथा असत्य समाचार देने पर क्षोभ व्यक्त किया है. श्री तिवारी ने भी उक्त समाचार दिए जाने पर आपत्ति की है तथा इसे गंदी राजनीति से प्रेरित बताया है।  इस पत्र के मिलने के तीन दिन के अंदर स्पष्ट करें कि आपने इस तरह का भ्रामक समाचार क्यों दिया ? जिससे हमारी संस्था की प्रतिस्ठा को गम्भीर आघात पहुंचा है.
(हस्ताक्षर ) 
हरि वल्लभ पाण्डेय
संपादक , यूनीवार्ता
                                    
मान्यवर, 
आपका पत्र ( पत्रांक 589/ 95 ) मिला। इस पर तारीख 20 जनवरी , 1995 टाईप है जबकि आपके हस्ताक्षर के नीचे एक माह बाद का दिनांक है.आशा है कि आप आगे की कारर्वाई के पहले यह भूल सुधार लेंगे। क्योंकि पत्र में संदर्भित प्रकरण जनवरी ,1995 का नहीं गत 17 फरवरी का है.वैसे मुझे ये पत्र 28 फरवरी, 1995 को मिला। तीन दिन के भीतर जवाब देने की बाध्यता के कारण जल्दबाज़ी में हो सकता है कि कुछ बातें स्पष्ट करनी शेष रह जाएँ। इसलिए मैं एक पूरक ऊत्तर भेजने का अपना अधिकार सुरक्षित रखता हूँ। इस पत्राचार के अंग्रेजी अनुवाद की आवश्यकता पड़ने पर गुरुजन के रूप में आपसे सहयोग मिलने का विश्वास रखता हूँ। 

अगर आपने अपने संवाददाता के बजाय केवल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री राजेन्द सिंह द्वारा किये गए खंडन और कॉंग्रेस नेता श्री नारायण दत्त तिवारी की शिकायत मात्र पर विश्वास कर पहले ही ये निष्कर्ष निकाल लिया कि मैंने " भ्रामक समाचार " दिया है तो फिर मैं क्या स्पष्ट करूँ ? आपने मुझे ये स्पष्ट करने को कहा है कि मैंने " इस तरह का भ्रामक समाचार क्यों दिया ". मैंने कोई भ्रामक समाचार नहीं दिया इसलिए आपकी इस " क्यों " की जिज्ञासा पूरी नहीं की जा सकती है.

अब आप अगर ये महसूस करें कि किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व आपको " सहज न्याय " अथवा औपचारिकता ही सही मुझे अपना पक्ष रखने और " स्थति " स्पष्ट करने का मौक़ा देना चाहिए था तो फिर आग्रह है कि मेरी निम्नलिखित बातों पर विचार किया जाए
श्री राजेन्द्र सिंह का खंडन सच नही है।  उनके अपने कथन से मुकर जाने के जो भी कारण हों मेरी ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि समाचार के सच को झूठ और खंडन के झूठ को सच मान लूं।  श्री सिंह ने जिस खबर का खंडन किया है वह अपने अपने माध्यम से मेरे अलावा अनेक समाचार पत्रों और बीबीसी रेडिओ के संवाददाताओं ने भी दी। हो सकता है कि ऊत्तर प्रदेश के उन समाचार पत्रों पर आपकी नज़र नहीं पड़ी हो जिनमे उनके अपने संवाददाताओं ने भी कमोबेश यही खबर लिखी। इनमें से स्वतंत्र भारत (लखनऊ ), राष्ट्रीय सहारा (लखनऊ )और नवजीवन (लखनऊ) के अलावा टाइम्स ऑफ़ इंडिआ (लखनऊ ) के १८ फरवरी के संस्करणों की कटिंग्स संलग्न है।  वैसे लखनऊ में उपलब्ध मेरी सीमित जानकारी के अनुसार नयी दिल्ली के भी कई अखबारों में यह खबर प्रमुखता से छपी जिनमें स्टेट्समैन , टाइम्स ऑफ़ इंडिआ तथा बिज़नेस एंड पोलिटिकल ऑब्जर्वर जैसे प्रतिस्थिठ अखबारों पर आपकी नज़र जरूर पड़ी होगी जिनके कटिंग्स संलग्न हैं।

फिर भी कोई व्यक्ति अगर यही माने कि इन सारे अखबारों के संवाददाता एक साथ झूठे है तो निश्चय ही उस व्यक्ति की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख के प्रति अंध निष्ठा होगी  बांकी लोग इस बात को भी ध्यान में रखेंगे कि नेताओं के अपने वक्तव्यों से मुकर जाना कोई असामान्य बात नहीं है अयोध्या प्रकरण की खबरें देने वाले संवाददाताओं का , जिनमे मैं भी शामिल हूँ , एक आम अनुभव है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेताओं को सच को झूठ और झूठ को सच बनाकर दुनिया के सामने पेश कर भ्रम फैलाने में महारत हासिल है।  भारतीय प्रेस परिषद् इसकी पुष्टि कर चुका है।
श्री राजेन्द्र सिंह के खंडन पर विश्वास नहीं करने के और भी कई ठोस आधार हैं. टाईम्स ऑफ़ इंडिया और स्टेसमेन समेत कई अखबारों ने यह खंडन प्रकाशित करने लायक भी नहीं समझा।  बल्कि इन अखबारों ने बाद के दिनों में और भी अधिक समाचार दिए तथा सम्पादकीय भी लिखे।  इस सन्दर्भ में टाईम्स ऑफ़ इंडिया ( नई दिल्ली ) के 24 फरवरी के अंक में श्री अनिल सक्सेना द्वारा लिखित ' प्रथम लीड ' समाचार तथा उसी अखबार में अगले दिन छपा सम्पादकीय , पॉयनिअर के 21 फरवरी के अंक में श्री कुलदीप कुमार का लेख , स्टेसमैन में श्री सी आर ईरानी का 20 फरवरी को प्रकाशित ' कैविएट ' तथा हाल के दिनों में इकोनॉमिक टाइम्स और टेलीग्राफ में छपे सम्पादकीय उल्लेखनीय हैं. गौरतलब यह भी है कि जनसत्ता ने 20 फरवरी को अपने लखनऊ संवाददाता के हवाले से श्री राजेन्द्र सिंह का खंडन तो छापा लेकिन उसी दिन छपा उसका एक सम्पादकीय ,  ' अब तिवारी क्या करेंगे ' , खंडन से अप्रभावित रहा।  20 फरवरी को ही नवभारत टाईम्स ने इस खबर पर एक सम्पादकीय , ' प्रशंसा से दुखी ' , छापा मगर वह खंडन नहीं छापा जो 19 फरवरी को वाराणसी से हमारी संस्था के माध्यम से जारी किया जा चुका था।  जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस ने लखनऊ स्थित अपने जिन संवाददाताओं के हवाले से खंडन छापे और एक ' समाचार एजेंसी ' पर ' सरकार की साज़िश ' के तहत वह खबर छापने का आरोप लगाया उन दोनों संवाददाताओं ने हमारी संस्था के कार्यवाहक ब्यूरो प्रमुख ( लखनऊ ) के सम्मुख स्वीकार किया है कि वे श्री राजेन्द्र सिंह की प्रेस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित नहीं थे।  उनका यह भी कहना था कि मेरे मोटिव पर संदेह नहीं किया जा सकता है

मेरी जानकारी के अनुसार हमारी संस्था को छोड़ किसी ने भी इस खबर के लिए अपने संवाददाता को ' कारण बताओ नोटिस " नहीं जारी किया है. इस प्रकरण में श्री राजेन्द्र सिंह के विभिन्न स्थानो और माध्यमों से जारी खंडन पर ही गौर करें तो पता चल जाएगा कि वह खुद सभी को भ्रमित कर रहे हैं।  वाराणसी से हमारी संस्था के जरिये गत 19 फरवरी को जारी खंडन के मुताबिक़ लखनऊ में प्रेस कॉन्फ्रेंस " में " उनसे यह  पूछा गया था कि आगामी लोक सभा चुनाव में यदि कोंग्रेस को पूर्ण बहुमत नही मिलता है तो संघ , प्रधानमंत्री राव और श्री अर्जुन सिंह में से किसे वरीयता देकर कोंग्रेस को समर्थन देगा।  श्री सिंह के अनुसार इस प्रकरण में श्री नारायण दत्त तिवारी का उल्लेख ही नहीं हुआ था. लेकिन बम्बई से गत 27 फरवरी को जारी श्री सिंह के खंडन पर गौर फरमाएं जो हिंदुस्तान टाईम्स में छपा है. इसमें श्री सिंह कहते हैं कि उनसे लखनऊ में प्रेस कॉन्फ्रेंस के ' बाद ' पूछा गया था कि कोंग्रेस के टूट जाने पर आर एस एस किसका समर्थन करेगा - श्री राव , श्री अर्जुन सिंह या श्री तिवारी का।

वास्तविकता यह है कि श्री सिंह से सवाल प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही पूछा गया था।  यह सवाल पूछने वाला भी खुद मैं था।  सवाल था , " राष्ट्रीय़ स्वयं संघ के नेता ( अब दिवंगत ) भाऊराव देवरस ने कोंग्रेस के साथ सहयोग का जो प्रस्ताव रखा था उस पर संघ के मौजूदा नेतृत्व का रूक अगले लोक सभा चुनाव में कोंग्रेस को बहुमत नहीं मिल पाने की सम्भावना के मद्देनज़र और देश में कोलिएशन पॉलिटिक्स के शुरू होते जा रहे दौर को ध्यान में रख कर क्या है ? प्रश्न में श्री राव , श्री अर्जुन सिंह और श्री तिवारी का कोई जिक्र नहीं था।  यह जिक्र जवाब में था। 

जवाबों के बीच कुछ अन्य विषयों पर भी चर्चा हुई।  मैंने खबर 'इंफेरेंस ' के आधार पर नहीं बल्कि उसी जवाब के ' कोट्स ' को उद्धृत कर दी।  दूसरे संवाददाताओं ने भी वही किया।  श्री सिंह ने कदापि नहीं कहा था कि वह ' ऑफ़ द रिकॉर्ड ' बोल रहे हैं. इस वक़्त तक चाय आदि के दौर जरुर शुरू हो गए थे।  कुछेक संवाददाताओं को लखनऊ में ही लगभग उसी वक़्त आयोजित श्री नारायण दत्त तिवारी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी भाग लेना था इसलिए वे श्री राजेन्द्र सिंह की बीच प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही वहाँ से उठ कर चले गए थे।  लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंस के अंत तक श्री राजेन्द्र सिंह के समक्ष मेरे समेत कम से कम 10 संवाददाता उपस्थित थे. श्री नारायण दत्त तिवारी की शिकायत सम्भवतः उन संवाददाताओं से प्राप्त विवरण पर आधारित है जो श्री राजेन्द्र सिंह की प्रेस कॉन्फ्रेंस के अंत तक मौजूद नहीं थे.

अब एक अहम सवाल यह  रह जाता है कि राजेन्द्र सिंह की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बारे में हमारी संस्था की हिंदी की खबर और अंग्रेजी की खबर में अंतर क्यों है ? इसका कारण ब्यूरो प्रभारी से पूछा जाना चाहिए। हमारी अंग्रेजी सेवा के संवाददाता , श्री राजेन्द्र सिंह की प्रेस कॉन्फ्रेंस की जगह नहीं पहुँच सके थे। मजबूरी में उन्हें मेरी खबर का अनुवाद करना पड़ा।  लेकिन उन्हें ब्यूरो प्रभारी ने निर्देश दे दिया था कि वह अंग्रेजी खबर में श्री तिवारी के बारे में श्री राजेन्द्र सिंह के कथन का समावेश नहीं करें। ब्यूरो प्रभारी ने मुझे भी यही करने का " आग्रह " किया था।

 मैंने उनसे यही कहा था कि इतना  महत्त्वपूर्ण समाचार नहीं लिखना उचित नहीं होगा क्योकि शेष सभी यह खबर जरूर देंगे। फिर भी मैंने उनसे कहा कि मैं सभी ' टेक ' पहले लिख लेता हूँ और वह जैसा चाहें उसका उपयोग करें तथा ' इंट्रो ' बदलना उचित लगे तो वह भी कर लें , क्योंकि मुझे कोई और इंट्रो नज़र नही आ रहा था।  मैंने खुद पहला टेक ' सामान्य रीलीज ' होने से रोक दिया ताकि सभी टेक पहले ब्यूरो प्रभारी के सम्मुख आ जाएँ।  इतने में हमारी हिंदी सेवा के वरिस्ठ
सहयोगी भी कार्यालय आ गए थे।  सम्भवतः दोनों के निर्देश पर तब डेस्क पर बैठे हमारे एक सहयोगी ने सभी टेक विशेष फाईल में आपके ध्यानार्थ दिल्ली प्रेषित कर  दिए।  वे सभी टेक दिल्ली में आपकी स्वीकृति के बाद ही रिलीज हुए होंगे।

मेरा कार्य समाचार देना था और मेरी सिर्फ यह जिम्मेवारी  थी कि खबर भ्रामक ना हो , तथ्यों पर आधारित हो और वह जल्द से जल्द डेस्क पर पहुँच जाए. अगर मेरी खबर की विश्वसनीयता में कोई संदेह था या उससे किसी ऐसे विवाद के उठने की आशंका थी  जिसमें हमारी संस्था को नहीं पड़ना चाहिए और अंग्रेजी में यह खबर नहीं जाने से साफ है कि ब्यूरो प्रभारी को यह संदेह और आशंका थी तो संदेह दूर करने के लिए तभी मुझसे और विवरण मांगे जा सकते थे. संदेह या आशंका दूर नहीं हो पाने की स्थिति में मेरी खबर को स्पाईक भी किया जा सकता था. मेरे ब्यूरो प्रभारी या सम्पादक ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। अब जब मेरी खबर की विश्वसनीयता के प्रति सभी तरह के संदेह दूर हो जाने चाहिए थे मुझसे यह स्पष्टीकरण माँगा जा रहा है कि मैंने " भ्रामक समाचार क्यों दिया ". अपनी ही संस्था के सहयोगियों के मेरे प्रति उत्पन्न संदेह से मैं अभी काफी तनाव में हूँ , सम्भव है वह तनाव इस पात्र में भी परिलक्षित हुआ हो।  अगर उससे किसी सहयोगी की भावना आहत हुई हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।  जहाँ तक संस्था की प्रतिष्ठा कू आघात लगने की बात है अगर वास्तव में ऐसा कुछ मेरे कारण हुआ है तो मैं संस्था से त्यागपत्र देने के लिए भी तैयार हूँ।
भवदीय
हस्ताक्षर 
चन्द्र प्रकाश झा
वरिस्ठ संवाददाता
लखनऊ  , 02 -03 -1995
संलग्न : 16 पेज ( पेपर कटिंग्स आदि के )
प्रति : महाप्रबंधक ( अंग्रेजी अनुवाद बाद में )

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