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Sunday, August 30, 2015

कमबख्त वक़्त : 004

दीवार घड़ी की कमबख्त सूइयां !!


मुंबई , 04 -04 -2015
अच्छी ही नहीं हर बुरी चीजों का भी एक तार्किक और स्वाभाविक अंत होता है. वक़्त भी अंत से नही बच सकता - कमबख्त हो कि खुशवक्त. वक़्त क्षणभंगुर है. मेरे लिए कमबख्त वक़्त को विदा करना फिलवक्त सम्भब नहीं.जुर्रत कहें , ना कहें , मैं इस वक़्त - बुरे ही नहीं अच्छे वक़्त से भी विदा चाहता हूँ. नही जानता कहाँ -कहाँ और कब तक जाना है. फिर कभी लौटना संभव होगा कि नही बुरे या फिर अच्छे वक़्त संग. वक़्त के आर-पार जाने की ख्वाहिश क्या गुल खिलायेगी नहीं मालूम. आज सूर्योदय से पहले मुम्बई से कूच करना है.सो जगा रहा रात भर.ताकि वक़्त कम -से-कम आज सुबह बेवफाई ना करे उसके संग जो वक़्त से उसके आगे रहने की प्यार -भरी मिन्नत कर.

ये तस्वीर उस पूरब जापान में बनी कूकू दीवार घड़ी की कम्बख्त सुईयों को ख़ुशवक्त बना देने बाद की है , जहां समाज और बाज़ार दूसरों से पहले जगता है. जापान में सूर्योदय का वक़्त कमबख्त है - हर पूंजी  बाज़ार के वास्ते। इस दीवार घड़ी में मादा कोयल घर के भीतर से बाहर - हर घंटे-आध घंटे झाँक अपने बच्चों को वक़्त की ताकीद करती रहती है। अब सोना ही नहीं. महबूब शायर मजाज़ के लफ़्ज़ों में " रास्ते में दम लूँ ये मेरी आदत नहीं , और कोई हमनवां मिल जाए फितरत नहीं ".

अपने कमबख्त वक़्त का आज का ये वाक्या दर्ज़ करते वक़्त चाय की तलब होने पर किचन की तरफ जाते -जाते हॉल में , घर लाई दीवार घड़ी पर नज़र पड़ी. उसका वक़्त मुझे अटपटा लगा.सोचा , यह वक़्त रात के क्या ,दिन के भी 12  बजे का नहीं हो सकता।  समझने में देर नही लगी कि घड़ी की मिनट की सूई अटक गई है और इसलिए घंटे की सूई भी अटकी है. वक़्त के मिनट ,घंटे पर भारी पड़ते हैं. 

चाय बनानी छोड़  दीवार घड़ी की बिगड़ी सूइयां ठीक करने लगा और वे ठीक हो भी गयीं. यह दीवार घड़ी मैंने हाल में हासिल की थी. बचपन से ही अच्छी दीवार घड़ी खरीदने की सोचता रहा।  कभी खरीद नहीं सका. खरीदने के लिए वक़्त नहीं मिला यह कहना सही नही होगा,  पैसों की भी किल्लत नहीं थी. पर ऐसी किसी दीवार घड़ी पर कभी नज़र ही नही पड़ी जो देखते ही भा जाये. यह दीवार घड़ी भी मैंने खरीदी नही. किसी ने हमारी बिल्डिंग से अपने सारे माल-असबाब समेत कंही और जाते वक़्त फ़ेंक दिया था.मैंने बिल्डिंग के गार्ड से पूछा तो उसने कहा था ," कचरा है , भंगार वाला भी नही ले जाएगा ". मैं उसे उठा ले आया. कई घड़ीसाज़ के पास गया. सबने उसे ठीक करने से मना कर दिया। आखिर में एक घड़ीसाज़ मिला जो मुझे जानता था , यह भी जानता था कि मुझे पुराने वक़्त की चीजों को ठीक करने-कराने का शौक है. उसने कहा , " कभी इतना टेढ़ा काम नहीं किया।  आपके लिए करूंगा , ठीक हो गया तो आपका नसीब। यह एंटीक है, इसके पार्ट -पुर्जे अब नही मिलते। ठीक हो सके या नही खर्च बहुत होगा। बोलो क्या बोलते हो. "

मैंने उसी से दीवार घड़ी ठीक करवा ली. अपने पास वक़्त-ही-वक़्त- के आलम में उस पर खुद नेचुरल कलर में दो इंच की ब्रश से पॉलिश कर दीवार पर लगा दी थी. पर इसकी ग्लास-कवर विहीन सूइयां , गोल्डन कलर की नई कोटिंग कुछ ज्यादा हो जाने और उन पर धूलकण जम जाने के अतिरिक्त भार की वजह से अटक गई . मैंने धूल साफ कर मिनट की सूई मोबाईल फ़ोन पर दिखे वक़्त से मिला कर क्लॉकवाइज घुमानी शुरू कर दी. घड़ी पर बाहर  दिख रहीं कोयल के दोनों बच्चों और उनकी माँ की हर आधे घंटे पर संक्षिप्त एक बार और पूरे घंटे पर , जितना बजा हो उतनी बार , दीर्घ रूप से कूकने की आवाज फिर आने लगी। मेरे लिए कमबख्त वक़्त से विदाई की याचना की इससे अच्छी कूक नहीं हो सकती।

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