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Sunday, August 30, 2015

कमबख्त वक़्त : 005

कमबख्त चश्मा -1 

 

 

मुम्बई-दिल्ली-बागडोगरा-नक्सलबाड़ी- काकरभित्ता -बिराटनगर (नेपाल), 04-04 -2015.
कमबख्त वक़्त से मुम्बई में आज ब्रह्ममुहूर्त में एकतरफा विदाई की अफ़रातफ़री में चश्मा छूट गया. इसका भान एयरपोर्ट परिसर में प्रवेश करते ही पुराने परिचित टैक्सी ड्राईवर के यह पूछने के बाद हुआ कि  किस टर्मिनल से किस विमान सेवा की उड़ान से जाना है. टिकट प्रिंट बीती रात ही पैंट की जेब में बटुए के साथ रख दिए थे। ड्राईवर के सवाल पर टिकट पैंट की जेब से बाहर निकाल हाथ में लेते ही चश्मा की तलब लगी. उस बेहद जरूरी तलब लगते ही यह खुशफहमी दूर हो गई कि मुम्बई से कूच कर जाने पर कमबख्त वक़्त मेरा पीछा छोड देगा. समझ गया कि कमबख्त वक़्त ने मुझे उसके चंगुल से निकलने की जुर्रत करने की पहली सज़ा सुना दी है. खुद से खुद कह पड़ा ' इब्तिदा-ए-खुशवक्त  है रोता है क्या ,आगे-आगे देखिये होता है ".

घर लौटने का  बुरा-भला  कोई वक़्त ही नहीं था.  मैंने ड्राईवर को टिकट देकर कहा , " देखो क्या लिखा है '. उसने टिकट लेते ही कहा , " साहिब , हमको अंग्रेजी कहाँ आती है " मैंने उसे टैक्सी बगल में रोक अपना चश्मा देने कहा और उसके चश्मे से टिकट का फाईन प्रिंट पढ़ टर्मिनल नंबर आदि बता दिए. मैंने निर्धारित टर्मिनल पहुँच अपने सूटकेस और लैपटॉप बैग के साथ टैक्सी से उतर कर ड्राइवर को  तयशुदा भाड़ा चुकाने के साथ ही उसका चश्मा भी लौटा दिया। उसने प्रेम से कहा , " साहिब , चाहो तो मेरा चश्मा ले जाओ , हम बिन चश्मे के भी गाड़ी चला लेंगे , आप पढ़ने -लिखने वाले लोग है , रख लीजिये  , कुछ तो काम आएगा ". मैंने कहा , " शुक्रिया , पर रहने दो।  जहां भी मौक़ा मिलेगा नया चश्मा बनवा लूंगा " .

विमान पर सवार होने के ऐन पहले मोबाईल फोन का रिंग बजा।  सोचा किस अहमक को सुबहो -सुबह मेरी याद आ गई। मोबाईल फोन पर नाम , नंबर नज़र ही नही आ रहे थे. पता नहीं कैसे मित्र अजय ब्रम्हात्मज की जानी -पहचानी आवाज़ आने लगी- यह पूछने कि मैं यात्रा पर सही -सही निकल गया या नहीं। मैंने विमान में बोर्डिंग के लिए कदम बढ़ाने के साथ ही कॉल कटने -काटने के पहले इतना कह ही दिया , " सब ठीक है , पर चश्मा छूट गया "

विमान में पढ़ने के लिए बहुत पुराने साथी , प्रदीप सौरभ का सद्यःप्रकाशित उपन्यास , ' और सिर्फ तितली ' की वह प्रति बीती रात ही लैपटॉप बैग में अपनी दवाओं , पासपोर्ट आदि के साथ रख ली थी जो उन्होंने हाल में दिल्ली से मुम्बई आकर मुझे भेंट की थी।  प्रदीप का आग्रह था कि मैं यह उपन्यास पढ़ कर उसके बारे में कुछ लिखूं भी. घर में पेन्टिंग और नई साज़- सज़्ज़ा के तमाम सार्थक -निरर्थक काम के बीच वह उपन्यास नहीं पढ़ सका था. सोचा था  कि मुंबई से दिल्ली और दिल्ली से बागडोगरा तक की उड़ान में यह उपन्यास पढ़ भारत की सीमा से बाहर निकलने के पहले ही प्रदीप को फोन कर कह ही दूंगा , " हाँ भाई , पढ़ ली ". मगर… हाय रे तितली ! आह रे उपन्यास !! उफ ये कमबख्त वक्त , कमबख्त चश्मा !!!

मुंबई से दिल्ली के रास्ते भर सोचता रहा कि दृष्टिविहीन लोग ब्रायल लिपि  की बदौलत पढ़ -लिख सकते हैं लेकिन जिन नेत्र-दृष्टी युक्त लोगों को चश्मा चढ़ जाए वे बिन चश्मा क्या -क्या और कितने भर कैसे देखें. बचपन में अपने गाँव में बकरी चराती एक वृद्धा का स्मरण हुआ जिसकी आँखों पर टूटे-फूटे लेंस और कमानी का चश्मा चढ़ा था. उसका फूटा लेंस गोंद से चिपकाया हुआ था।  कमानी नाम भर की शेष थी जिसे उसने जूट की सूतली से जोड़ कानों पर बाँध रखी थी. मैंने साहस कर उससे पूछा था , "  इससे दिख जाता है क्या ? " उसने सहज भाव से कहा था ," बकरियों की गिनती करने लायक तो दिख ही जाता है ".

यह भी स्मरण हुआ कि मुझे बचपन से ही चश्मा चढाने की ललक थी।  सोचता था कि चश्मा मिल जाए तो पढ़ाई -लिखाई बेहतर हो जाएगी. स्कूल क्या , कॉलेज तक चश्मा लगाने का सौभाग्य नहीं मिला. जेएनयू के ज़माने में एक ख़ास दोस्त ने ऐम्स से लगे डा.  राजेन्द्र प्रसाद सेंटर फॉर ऑप्थल्मिक साइंसेज में संग जाकर मेरा पहला चश्मा महज़ 50 रूपये के खर्च पर बनवा दिया था. फिर हर कुछेक वर्ष पर तरह-तरह के फ्रेम, लेंस , फोटो ब्रॉउन , फोटो ब्लैक आदि रंग के नए-नए  चश्मे बनते रहे. मुंबई में छूटा प्रोग्रेसिव लेंस का बाईफोकल चश्मा मैंने वहीं फोर्ट में दादाभाई नारोजी रोड पर 1877 से चालू लॉरेंस एंड मायो दूकान से करीब दस हज़ार रूपये  के खर्च से अपने निलंबन के कुछ समय बाद बनवाया था। उसके बाद डायबिटिक करार दे दिए जाने के बावजूद नए लेंस की जरुरत नहीं पड़ी , अलबत्ता रांची में चश्मों की एक पुरानी दूकान , बी एन बैजल  ऑप्टिशिअन्स से जनवरी 2014 में बैक अप के बतौर एक साधारण चश्मा बनवाया था जिसका उपयोग करने की नौबत कभी नहीं पड़ी। वह कमबख्त बैक अप चश्मा भी मुम्बई में ही रह गया.

सोचते -सोचते राह गुज़र गई. पायलट की गर्वोक्तकारी घोषणा गूंजी कि उसने यह उड़ान निर्धारित समय से कुछेक मिनट पहले ही दिल्ली उतार दी है. दिल्ली से बागडोगरा की कनेक्टिंग उड़ान भरने में करीब ढाई घंटे की प्रतीक्षा करनी थी। ख़याल तो आया कि वसंत कुञ्ज वाले घर जाकर अपना -पराया , किसी का कोई पुराना चश्मा उठा ले आऊं।  शनिवार का दिन था , उस घर पर कोई ना कोई होगा ही। दिल्ली में 20 सितम्बर से 6 दिसंबर 2014 के अपने पिछले लम्बे प्रवास के दौरान ढेर सारा कचरा और फालतू सामान भरे उस घर को इंसानों के रहने लायक बनाने -बनवाने के दौरान वहाँ कई दर्ज़न पुराने चश्मे भी मिले थे. इनमें दिल्ली में कोई 25 वर्ष पहले बनवाए अपने भी चश्मे भी थे।  कुछेक अच्छे फ्रेम वाले चश्मों को छोड़ बाँकी सब फ़ेंक दिए थे।  एयरपोर्ट से वसंत कुञ्ज वाले घर जाने और वापस आने में बमुश्किल घंटा -भर लगता।  एयरपोर्ट से निकलने से पहले जब पूछ -ताछ की तो पता चला कि मैं बाहर तो जा सकता हूँ पर लौटना सुगम नहीं होगा क्योंकि दिल्ली से आगे की कनेक्टिंग उड़ान के लिए मेरा बोर्डिंग पास मुंबई में ही बना कर मुझे थमाया जा चुका है.
दिल्ली से बागडोगरा पहुंच कर मैंने काकारभित्ता बॉर्डर तक के लिए टैक्सी ली और उसके ड्राईवर से कहा ," रास्ते में जो नक्सलबाड़ी है ना  वहां थोड़ा रुकना है , चाहो तो थोड़े और पैसे ले लेना। " नक्सलबाड़ी पहुँच मैंने चाय पी , कुछ लोगों से संक्षिप्त बात की। बिलकुल साफ नज़र तो नहीं आ रहा था नक्सलबाड़ी और वहाँ के स्मारक।  फिर भी कुछेक फोटो क्लिक कर लिए। फिर उसी टैक्सी से भारत-नेपाल बॉर्डर स्थल , काकरभित्ता पहुँच गया. वहां से बिराटनगर के लिए दूसरी टैक्सी लेनी पड़ी।

बिराटनगर पहुँचते ही मेरी नज़र आँखों के एक अस्पताल पर पड़ी।  अस्पताल के बगल की एक गली में चश्मों की कई दुकाने थीं। .मुझे पता था कि वहां चीन में बने " रेडीमेड " लेंस मिल सकते हैं. एक दूकान पर बैठी महिला ने मुझे देखते ही पुकारा। वह क्षण में भाग कर अपने पति को बुला लाई जिसने आनन -फानन में मेरी दृष्टी की जांच कर दो  बाईफोकल लेंस मेरे सामने रख दिए और कहा , " लेंस को कीमत 150 रूपये भारू , फ्रेम को कीमत सौ रूपये भारू " मैंने  एक लेंस और फ्रेम पसंद कर उसे चश्मा बना देने कहा।  चश्मा बनाने के दौरान उसने पूछा कि मैं किसके यहां आया हूँ. मैंने अपने बहनोई का नाम केएन ठाकुर बताया तो उसने पूछा , " डा  ठाकुर ? " मैंने कहा , " उनके ही घर , मेरे बहनोई ही समझो , सगे बड़े भाई हैं मेरे बहनोई के ". उसने कहा , " आप पाहुन हैं , 50 रूपये भारू कम देना  ".  उसकी दूकान पर पहुँचने के 10 मिनट के भीतर मेरी आँखों पर नया चश्मा चढ़ गया था. मुझे भारू और मोरु करेंसी में अंतर साफ दिखने लगा था। लेकिन यह मुम्बई में  छूटे भारी मंहगे कमबख्त चश्मे का कमबख्त गरीब क्लोन ही था। 

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