प्रतिकविता
आत्म-पलायन के विरूद्ध
निकलो निकलो
बाहर आओ
खुद की खोह से
खुद में खुद तक
तिल-तिल जिओगे
घुट- घुट मरोगे
निकलो निकलो
बाहर आओ
आओ आओ
खुले में
सबके संग
जहां
ज़िंदा रहने
और मरने का भी
मतलब हो
मतलब हो
निकलो निकलो
बाहर आओ
खोह में ओढ़े जाल से
काट दो
फ़ेंक दो
खुद बुना
खुद ओढ़ा
मकड़जाल
जहां
कैद है जीवन
कैद है जीवन
जिसकी द्रुत
और विलम्बित विस्तार की व्याख्या में
और विलम्बित विस्तार की व्याख्या में
उलझे रह जाओगे
निकलो निकलो
बाहर आओ
अँधेरे खोह से
जहाँ
भुगत-भोग रहे
मिथ्या जीवन के
मिथ्या दुःख सुख
जहाँ
जीवन के भ्रम पाले हो
निकलो निकलो
बाहर आओ
आओ आओ
निकलो निकलो
बाहर आओ
धरती और आकाश के
क्षितिज के
जीवन के
सृजन के
आनंद के
(प्रथम प्रारूप जेएनयू , दिल्ली 12 -12 -1984 :अंतिम प्रारूप इंडस्ट्रियल कोर्ट ,मुम्बई 02 -03 -2015भुगत-भोग रहे
मिथ्या जीवन के
मिथ्या दुःख सुख
जहाँ
जीवन के भ्रम पाले हो
जहाँ
दरअसल पसारे हो
आत्म- पलायन के जाल
दरअसल पसारे हो
आत्म- पलायन के जाल
निकलो निकलो
बाहर आओ
आओ आओ
खुले में खुलो
खुले में बुनो
जीवन के धागों से
अपना सबका संसार
बेहतर से बेहतर संसार
जहाँ
मिले और पले
सत्य जीवन
सम्पूर्ण जीवन
जहां
ना गुजरे
बेमतलब की जिंदगी
मिले और पले
सत्य जीवन
सम्पूर्ण जीवन
जहां
ना गुजरे
बेमतलब की जिंदगी
जहां ना मिले
अधमरे का संग
बेमतलब की मौत
अधमरे का संग
बेमतलब की मौत
आओ आओ
बाहर आओ
खुले में
जहाँ
खुल कर हंसो
खुल कर जिओ
खुल कर रोओ
खुल कर मरो
खुल कर हंसो
खुल कर जिओ
खुल कर रोओ
खुल कर मरो
निकलो निकलो
बाहर आओ
मिथ्या अपराधबोध से
श्रम के निलंबन के
मर्यादित
और अमर्यादित प्रश्नों से
आओ आओ
खुले में
जहाँ
कुछ बनो
ना बनो
दायित्वबोध हो
जहां
तुम्हारे श्रम से
पैदा हों सपने श्रम के निलंबन के
मर्यादित
और अमर्यादित प्रश्नों से
आओ आओ
खुले में
जहाँ
कुछ बनो
ना बनो
बन कर रहो
बन कर मरो
श्रम से परिपूर्ण इंसान
जहाँ दायित्वबोध हो
जहां
तुम्हारे श्रम से
धरती और आकाश के
क्षितिज के
जीवन के
सृजन के
आनंद के
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