कमबख्त वक़्त : 001
आह री कलाई घड़ी
दो अक्टूबर 2010
आज की सुबह आज़ाद हिन्दुस्तान के बहुतेरे लोगों के लिए अलसाई -सी होती है. मेरे लिए कुछ ज्यादा ही अलसाई गुज़री जगने बाद वक़्त देखने की जहमत नहीं करनी पड़ी। बिन घड़ी देखे पुख्ता एहसास था - अब ना वक़्त मेरे साथ रहा और ना ही मैं वक़्त के संग.
ऐसा भी नहीं कि आज राष्ट्रीय अवकाश होने की बदौलत मेरा भी कार्यालय बंद था. वो तो मेरी पैदाइश के कुछेक बरस में खुल जाने के बाद कभी बंद ही नहीं हुआ.हिन्दुस्तान -चीन युद्ध और बाद के सभी युद्ध के दौरान भी हर हमेशा खुला रहा.दिवंगत इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में लागू आंतरिक आपातकाल में कम्पनी के सरकारी अधिग्रहण के बाद एक नई कम्पनी में विलय कर देने बाद भी 9 ,रफी मार्ग , नई दिल्ली अवस्थित हमारा कार्यालय बंद नहीं किया जा सका.
ऐसा भी नहीं कि मुझे आज कंही नही जाना था, घर ही नहीं कार्यालय के बाहर के भी काम बहुत थे.जगने के कुछ देर बाद घर से निकलने तैयार होने लगा. तैयारी में आदतन कलाई घड़ी भी हाथ में आ गई कलाई पर बांधते वक़्त ठिठक गया. वक़्त साथ ना दे तो क्या बाँधना. किसी का ग़ुलाम नही कमबख्त वक़्त. घड़ी चमचमा रही थी, कलाई पर बंधने मचलने - सी लगी. मैंने उसे नरम मूँज से बनी छोटी टोकरी में उस पेपरवेट के बगल मेज़ की आखरी दराज़ में रख दिया जो कभी अमीनाबाद , लखनऊ के एक स्नेही खबरनवीस ने खुद बना कर भेंट की थी.आज सुबह से काम से निलंबित हूँ , ' मेरा समय ' ठहर गया है
हाथ की घड़ी चल रही थी. गलत या सही यह जानने की जरुरत ही नहीं पड़ी। लगता था कि ठहरे हुए समय में सही या गलत क्या देखना। यह तो साफ था कि अगर घड़ी गलत चल भी रही होगी और ठहरे हुए समय में उसकी सुई सही करनी भी पड़ी तो कुछ फर्क नहीं पडेगा। घड़ी तब भी कलाई पर नहीं बंधी होगी। मेरा समय भी निलम्बित रहेगा , मेरी नौकरी की तरह। पर निलम्बन के बाद कलाई से उतार दी अपनी घड़ी जब कभी दिखी बड़ी प्यारी लगती थी। नई लगती थी. सबसे बड़ी बात कि वह बंद नही थी. मेरी कलाई पर बंधने के लिए सदा तैयार लगती थी।
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